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________________ 54 अनेकान्त-57/1-2 यदुदितं वचनं शुचि साधुना वदति तत् न कुधीरिति साधु ना । ज्वरमितः सुपयः किमु ना सितां ह्यनुभवद् भुवि रोगविनाशिताम् ।। - निरंजनशतक, 71 प्रस्तुत श्लोक में साधु के निर्दोष वचनों को अज्ञानी द्वारा ठीक न कहना तथा ज्वरयुक्त मनुष्य द्वारा मिश्रीयुक्त दूध को मीठा न कहना इन दोनों उपमेय-उपमान रूप वाक्यों में विम्ब - प्रतिबिम्बभाव है । यतः यहाँ दृष्टान्त अलंकार है । व्यतिरेक - जहाँ पर उपमान की अपेक्षा उपमेय के आधिक्य का वर्णन किया जाता है, वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है । यथा लसति भानुरयं जिनदास ! खे नयति तापमिदं च तदा सखे! | जितरविर्महसा सुखहेतुकम् उरसि मेऽस्ति तथात्र न हेतुकम् ।। निरंजनशतक, 35 - यहाँ जिनेन्द्र उपमेय और सूर्य उपमान है। सूर्य आकाश में रहने पर जगत् को संताप देता है किन्तु जिनेन्द्रेव हृदय में रहने पर सन्ताप नहीं देते हैं । ऐसा कहकर उपमान सूर्य की अपेक्षा जिनेन्द्रदेव के आधिक्य का वर्णन होने से व्यतिरेक अलंकार की झलक मिलती है । विशेषोक्ति - कारण उपस्थित होने पर भी कार्य के न होने में विशेषोक्ति अलंकार माना गया है । यथा उपगता अदयैरुपहासतां कलुषितं न मनो भवहाः सताम् । शमवतां किंतु तत् बुधवन्दनं न हि मुदेऽप्यमुदे जडनिन्दनम् ।। –परिषहजयशतक, 53 यहाँ अप्रीति का कारण निन्दा एवं अनादर तथा प्रीति का कारण वन्दन का वर्णन होने पर भी प्रीति- अप्रीति रूप कार्य की उत्पत्ति न होने से विशेषोक्ति नामक अलंकार है । अर्थान्तरन्यास- जहाँ पर सामान्य का विशेष से या विशेष का सामान्य से समर्थन किया जाता है, वहाँ पर अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है । यथा
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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