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________________ 114 अनेकान्त-57/3-4 सत्यांश को जानता है वही सम्पूर्ण सत्य को जानता है। जो सम्पूर्ण सत्य को नहीं जानता वह पूर्णतया सत्यांश को भी नहीं जानता। सत्य अल्पज्ञों द्वारा पूरा नहीं जाना जा सकता - जीवन और जगत की रचना और व्यवस्था, जीवन के लक्ष्य और मार्ग, लोक के उपादान कारणभूत द्रव्यों के स्वरूप और शक्तियों के सम्बन्ध में यद्यपि तत्त्वज्ञों ने बहुत कुछ अनुभव किया है- बहुत कुछ भाषा द्वारा उसका निर्वाचन भी किया है-यह सबकुछ होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि किसी भी प्रस्तुत विषय-सम्बन्धी जो कुछ अनुभव होना था सो हो चुका और जो कुछ कहने योग्य था वह कहा जा चुका। वस्तु इन समस्त अनुभवों और निर्वाचनों से प्रदर्शित होने के बावजूद भी इनसे बहुत ज्यादा है। वह तो अनन्त है-वह काल क्षेत्र परिमित इन्द्रिय बोध, अभिप्राय-परिमित बुद्धि और अवयवमयी जड शब्दों से नहीं ढका जा सकता। जिज्ञासुओं का अनुभव इस बात का साक्षी है कि जितना जितना गहरा अध्ययन किया जाता है, जितना जितना बोध बढ़ता जाता है, उतना उतना ही ज्ञातव्यविषय का अज्ञात अन्तर्हित क्षेत्र और अधिक गहरा और विस्तीर्ण होता चला जाता है। ऐसी स्थिति में विचारक को, महान तत्त्ववेता सुकृतीश के शब्दों में, वस्तु की असीम-अथाह अनन्तता और अपनी बुद्धि की अल्पज्ञता का अनुभव होने लगता है। उसे प्रतीत होता है कि वस्तुतत्त्व न वचनों से मिल सकता है, न बुद्धि से प्राप्त हो सकता है और न शास्त्र का पाठ करने से पाया जा सकता है। इसलिये औपनिषदिक शब्दों में कहा जा सकता है कि जो यह कहता है कि मैं बहुत जानता हूँ वह कुछ नहीं जानता और जो यह कहता है कि मैं कुछ नहीं जानता वह बहुत कुछ जानता है । ___जैन परिभाषा में विचारक के इस दुःखमय अनुभव को कि इतना वस्तु सम्बन्धी कथन सुनने, शास्त्र पढ़ने, मनन करने और विचारने पर भी उसको वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान न हो पाया और वस्तु ज्ञान अभी बहुत दूर है,
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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