________________
पचास वर्ष पूर्व
सत्य अनेकान्तात्मक है
- बाबू जयभगवान जैन, वकील
सत्य' अनेकान्तात्मक है या अनन्तधर्मात्मक है, इस वाद के समर्थन में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि सत्य का अनुभव बहुरूपात्मक है। जीवन में व्यवहारवश वा जिज्ञासावश सब ही सत्य का निरन्तर अनुभव किया करते है; परन्तु क्या वह अनुभव सबका एक समान है? नहीं, वह बहुरूप है। अनुभव की इस विभिन्नता को जानने के लिये जरूरी है कि तत्त्ववेताओं के सत्यसम्बन्धी उन गूढ मन्तव्यों का अध्ययन किया जाय, जो उन्होंने सत्य के सूक्ष्म निरीक्षण, गवेषण और मनन के बाद निश्चित किये हैं। इस अध्ययन से पता चलेगा कि यद्यपि उन सबके अन्वेषण का विषय एक सत्यमात्र था, तो भी उसके फलस्वरूप जो अनुभव उनको प्राप्त हुए हैं, वे बहुत ही विभिन्न हैं - विभिन्न ही नहीं किन्तु एक दूसरे के विरोधी भी प्रतीत होते हैं ।
आधिदैविकदृष्टि (Animistic Outlook ) रखनेवाले भोगभौमिक लोग समस्त अनुभव्य बाह्य जगत और प्राकृतिक अभिव्यक्तियों को अनुभावक अर्थात् अपने ही समान स्वतन्त्र, सजीव, सचेष्ट सत्ता मानते हैं। वे उन्हें अपने ही समान हावभाव, आयोजन प्रयोजन, विषय-वासना, इच्छा-कामना से ओतप्रोत पाते हैं। वे जलबाढ, उल्कापात, वज्रपात, अग्निज्वाला, अतिवृष्टि, भूकम्प, रोग, मरी, मृत्यु आदि नियम विहीन उपद्रवो को देखकर निश्चित करते हैं कि यह जगत नियम विहीन, उच्छृङ्खल देवताओं का क्रीडास्थल है।' मनुष्य की यह आरम्भिक अधिदैविकदृष्टि ही संसार के प्रचलित देवतावाद (Theism) और पितृवाद (Ancestorworshiop) की कारण हुई है। यही वैदिक ऋषियों की दृष्टि थी ।
अनुभव्यदृष्टिं (Objective outlook) वाले जड़वादी वैज्ञानिक अनुभव्यजगत