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________________ 8A अनेकान्त-57/3-4 साधु सोचने को तैयार नहीं कि याचनाशील होने पर मैं मोक्षमार्ग से च्युत हो जाऊँगा। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने याचना करने वाले को मोक्षमार्ग से पृथक् माना है। जे पंच चेल सत्ता गथग्गाहीय जायणासीला। अधा कम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।। 79 मो. पाहुड़ जो पांच प्रकार के वस्त्रों में आसक्त हैं परिग्रह को ग्रहण करने वाले हैं याचना करते हैं तथा अधःकर्म निंद्यकर्म में रत हैं, वे मुनि मोक्षमार्ग से पतित हैं। परिग्रही साधक विशुद्धि को भी प्राप्त नहीं होता है जैसा कि कहा है वैषम्ययत्यप्यं दिव्यं स्वीयमनिन्धं यद् द्रव्यम्। निश्चयनयस्य विषयगृहीव परिगृही नाव्यम्।। यह परिग्रहवान् मुनि भी निश्चयनय के विषयभूत अनिन्दनीय दिव्य और अविनाशी स्वकीय द्रव्य को गृहस्थ के समान प्राप्त नहीं होता अर्थात् जिस प्रकार परिग्रही गृहस्थ शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार परिग्रही साधु भी नहीं प्राप्त होता है। अतः विशुद्धि को बढ़ाने के लिए साधुओं का एक स्थान विशेष पर जीवन भर या लम्बी अविध रुकने का मोह नहीं होना चाहिए जिससे उनका 'अनियमित विहार' चलता रहेगा और वे आगम की मर्यादा की सुरक्षा करते हुए मोक्षमार्ग की महती प्रभावना कर सकेंगे। सन्दर्भ 1. मूलाचार प्रदीप 31 2. तत्वार्थवार्तिक भा. पृ. 595 3. बृहत्कल्पभाष्य 1/36 4. दंसणसोधी ठिदिकरणभावणा अदिसयत्तकुसलत्तं । खेतपरिमग्गणावि य अणियदवा ते गुणा होति ।। भग. आराधना गा. 147
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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