________________
अनेकान्त-57/3-4
अतिरिक्त ग्यारह रत्नियों का उल्लेख प्राप्त होता है, जिन्हें राज्यों का दाता कहा गया है-एते वै राष्ट्रस्य प्रदातारः। क कालान्तर में इन वैदिक कालीन रत्नियों को 'तीर्थ' नाम से पुकारा जाने लगा और जिनकी संख्या अठारह हो गयी थी। रामायण तथा महाभारत महाकाव्यों में इन तीर्थों की संख्या अठारह बतायी गयी है।' रघुवंश, शिशुपालवध आदि महाकाव्यों, पंचतन्त्र आदि नीतिकथाओं एवं अर्थशास्त्र आदि से भी अठारह तीर्थों के अस्तित्व की जानकारी प्राप्त होती है। वस्तुतः आरम्भिक कालावधियों एवं अपेक्षाकृत छोटे राज्यों में इन प्राशासनिक विभागों की संख्या बहुत कम थी। विष्णुस्मृति एवं राजतरंगिणी में क्रमशः चार और सात विभागों का उल्लेख आया है। यहाँ एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न विचारणीय है कि 'तीर्थ' शब्द शासकीय विभागों के लिए प्रयुक्त किया गया है अथवा विभागाध्यक्षों के लिए? सामान्यतः डा. जायसवाल, राधाकुमुद मुखर्जी आदि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि प्राचीन भारतीय साहित्य में 'तीर्थ' शब्द विभागों के अध्यक्षों अथवा विशिष्ट कार्याधिकारियों के लिए प्रयुक्त हुआ है न कि विभागों के लिए।' किन्तु राजतरंगिणी में स्पष्ट कहा गया है कि प्राचीन काल में केवल सात कर्मस्थान (विभाग) थे जो कालान्तर में अठारह हो गये तथा आगे चलकर उनमें पाँच कर्मस्थान और जोड़ दिये गये यथा-महाप्रतिहार, महासन्धिविग्रह, महाश्वशाल, महाभाण्डागार और महासाधनमात्र। इन विभागों के अधिकारियों को 'अभिगतपंचमहा' शब्द से अभिहित किया गया।
_स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय राज्यानुशासन के अन्तर्गत 'तीर्थ' शब्द शासकीय विभागों के लिए प्रयुक्त किया गया तथा विभागों के नाम के साथ 'महा' शब्द जोड़कर विभागाध्यक्ष को सम्बोधित किया गया। उदाहरणार्थ सम्राट अशोक के अभिलेखों में विभाग के उच्चाधिकारियों को महामात्र, धर्ममहामात्र तथा अन्य पदाधिकारियों को युक्त, राजुक प्रादेशिक आदि कहा गया है। निःसन्देह तीर्थ शब्द प्रशासकीय विभागों के लिए प्रयुक्त किया गया न कि विभागाध्यक्षों के लिए।
राज्य के कार्यो का अठारह तीर्थों के अन्तर्गत परम्परागत विभाजन का