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________________ अनेकान्त-57/3-4 इन चार शुक्लध्यानों में प्रथम ध्यान मन, वचन और काय इन तीन योग वालों के, दूसरा ध्यान तीन योगों में किसी एक योग वाले के, तीसरा ध्यान काय योग वाले के और चौथा ध्यान योग से रहित अयोग केवली के होता है। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि रागादि परिग्रह से रहित मुनि शुक्ल ध्यान द्वारा अनेक भवों के संचित कर्मों को शीघ्र जला देता है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार 'जो कर्म अज्ञानी लक्ष कोटि भवों में खपाता है, वह कर्म ज्ञानी तीन प्रकार से गुप्त (त्रिगुप्ति) होने से उच्छवास मात्र में खपा देता है (प्र. सार 238)।' इससे शुद्धात्मानुभाव और शुद्धोपयोग की महिमा स्वयं सिद्ध होती है। स्वाध्याय और समाधिमरण - जीवन की सफलता समाधिमरण पूर्वक देह त्याग में है। इसे सल्लेखना भी कहते हैं। सल्लेखना - सत् लेखन अर्थात् काया (शरीर) एवं मनोविकारों रूप कषायों को सम्यक् रूप से कृश (क्षीण) करने को कहते हैं। यह दो मुखी कार्य करती है। बाह्य रूप से शरीर को कृश करती है और अभ्यंतर रूप से कषायों को कश कर अकर्ता-अभोक्ता रूप आत्मा को उसके ज्ञायक/समता भाव में स्थापित करती है। सल्लेखना जीवन भर की आत्म साधना का सुफल है इसके लिये निरंतर शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिये। भगवती आराधना की निम्न गाथा मननीय है आदहिदपइण्या भाव संवरो णवणवो न संवेगो। णिक्कंपदातवो भावणा य परदेसिगत्तं च ।। 100 ।। अर्थ- (1) जिनागम का अभ्यास करने वाले के आत्महित का ज्ञान होता है, (2) पाप कर्मों का संवर होता है, (3) नवीन-नवीन संवेग भाव उत्पन्न होता है, (4) मोक्षमार्ग में स्थिरता आती है, (5) तपस्या में वृद्धि होती है, (6) गुप्ति पालन में तत्परता आती है, (7) इतर भव्य जीवों को उपदेश करने की सामर्थ्य उत्पन्न होती है। यह सात गुण जिनागम के स्वाध्याय करने वाले आत्मा में प्रकट होते हैं। इसका फल समाधिमरण/सल्लेखना पूर्वक देह त्यागकर उत्तम गति प्राप्त करना है। निष्पत्ति - स्वाध्याय-श्रुताभ्यास द्वारा शुद्धोपयोग में प्रवृत्ति सहज होती है। इस रहस्य का उद्घाटन पं. प्रवर आशाधर जी ने अध्यात्म रहस्य श्लोक 55 में
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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