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________________ अनेकान्त-57/3-4 ज्ञान-ध्यान की साधना का स्वरूप और महत्व :- जैन धर्म ज्ञानात्मक और भावात्मक हैं। इसके बाद क्रिया रूप चारित्र का स्थान है। आत्मानुभव के साथ जुड़ा ज्ञान सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यग्ज्ञान नाम पा जाता है। मुनि शिवभूति मंदबुद्धि के थे फिर भी त्रिकर्म रहित शुद्धात्मा का अनुभव होते ही वे सम्यग्ज्ञान और ध्यान की आराधना करते हुए उसी भव से मुक्त हो सिद्धपरमेष्ठी हो गये। सर्वज्ञ देव ने आत्मा को ज्ञानस्वरूप बताया है, वह स्वयं ज्ञान ही है, वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य क्या करे? आत्मा पर भाव का कर्ता है ऐसा मानना व्यवहारी जीवों का मोह (अज्ञान है)। आचार्य अमृत चन्द्रदेव के शब्दों में आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्कोति किम। पर भावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम।। (स. सार. कलश 62) महाकवि श्रीमद् भोज ने द्रव्यानुयोग तर्कणा में ज्ञान की महत्ता निम्न रूप दर्शायी है ज्ञानं निधानं परमं प्रधानं ज्ञानं समानं न बहुक्रियाभिः ज्ञानं महानन्दरसं रहस्यं ज्ञानं परं ब्रह्म जयत्यनन्तम् (द्रव्या. 15/9) 'ज्ञान सर्वोत्तम निधि है, ज्ञान सब में प्रधान है, ज्ञान समान कोई क्रिया नही है, ज्ञान महासुख देने वाला रस है, ज्ञान ही परम ब्रह्म का रहस्य है और अंत रहित है। ऐसा ज्ञान सर्वोत्कर्षता करके वर्तता है।' ज्ञानरहित बाह्य क्रिया जिनमत में निंदित है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार पदार्थ सम्बन्धी अतीन्द्रिय ज्ञान सुख रूप होता है इसलिये वह उपादेय है। पुनश्च, केवलज्ञान सुख स्वरूप है (प्रवचनसार गाथा 53 एवं 61)। जो जानता है सो ज्ञान है अर्थात् जो ज्ञायक है वही ज्ञान है। आत्मा स्वयं ही ज्ञान रूप परिणमित होता है और सर्व पदार्थ ज्ञानस्थित हैं। इसलिये जीवज्ञान है और त्रिकालवर्ती द्रव्य ज्ञेय हैं। ज्ञान स्वपर ज्ञायक है, यह ज्ञेय की द्विविधता है। (स. सार गाथा 35-36)। आत्मज्ञान युक्त ज्ञान तो सम्यग्ज्ञान है ही, 'श्रुतं हि तावत्सूत्रम्' के अनुसार श्रुत ही सूत्र है। उस शब्द ब्रह्म रूप सूत्र की ज्ञप्ति सो ज्ञान है। श्रुत उसका कारण होने से ज्ञान के रूप में उपचार से
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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