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________________ अनेकान्त-57/3-4 देने वाली होती है। साधुवेष से ही मोक्षसंभव है। अतः श्रावक को गुरुवन्दना अवश्य करना चाहिए। पं. मेधावी ने स्पष्ट रूप से कहा है गृहाश्रमं यः परिहृत्य कोऽपि, तं वानप्रस्थं कतिचिद्दिनानि। प्रपाल्य भिक्षुर्जिनरूपधारी, कृत्वा तपोऽनुत्तरमेति मोक्षम् ।। अर्थात् जो मोक्षाभिलाषी पुरुष गृहस्थाश्रम छोड़कर कुछ दिनों तक वानप्रस्थ आश्रम का यथाविधि पालन करके जिनराज के समान दिगम्बर मुनिमुद्रा का धारक होता है, वह नाना प्रकार के दुष्कर तप करके अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। गुरु-उपासना-विधि :- पण्डित आशाधर ने सिद्धों एवं अरिहन्तों के समान दिगम्बर साधु की उपासना करने का विधान किया है। उनका कहना है कि अरिहन्त, सिद्ध, जिनधर्म और गुरु ये चारों ही लोकोत्तम एवं शरणभूत हैं। परमोत्कृष्ट होने से ये लोकोत्तम तथा दुःखनाशक एवं विध्नविघातक होने से शरण हैं। प्रमादरहित मोक्ष के इच्छुक व्यक्तियों के द्वारा गुरुओं की सदैव उपासना की जाना चाहिए। क्योंकि जैसे गरुड़ के पंखों को ओढ़कर चलने वालों को सर्प भय नही रहता है, सर्प उनके समीप नही आ सकते हैं, उसी प्रकार गुरु की उपासना (भक्ति) करने वालों को किसी प्रकार का विघ्न नही आता है। उनका कथन है कि उत्तम गृहस्थ अरिहन्तों की तरह वर्तमान काल सम्बन्धी मुनियों में चतुर्थकाल सम्बन्धी मुनियों की स्थापना करके शक्तिपूर्वक पूजन करे। क्योंकि अत्यन्त चर्चा करने वालों का कल्याण कैसे हो सकता है? इस कलिकाल में जिनशासन की भक्ति से जिनरूप को धारण करने वाले व्यक्ति भी जिनेन्द्र भगवान के समान मान्य हैं। ऐसी धर्मानुरागिणी बुद्धि से चित्त में विकार न लाकर धीर बनना चाहिए। क्योंकि भाव ही पुण्य एवं पाप का कारण है। इसलिए उसे दूषित होने से बचना चाहिए। अनशन आदि तप का कारण होने से ज्ञान पूजनीय है, उस ज्ञान की वृद्धि का कारण होने से तप पूजनीय है। ज्ञानी, तपस्वी और ज्ञानी तपस्वी पुरुष अपने-अपने गुणों के कारण पूजनीय हैं। पं. मेधावी ने धर्मसंग्रहश्रावकाचार में पं. आशाधर का ही अनुसरण करते
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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