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________________ अनेकान्त-57/3-4 परिग्रह से विमुक्त हो, जैनधर्म की प्रभावना करने वाला हो, गण का स्वामी हो, सर्वगण का आधार हो और जैन धर्म के मूल मार्ग का प्रदर्शक हो, अनेक उत्तम गुणरूपी रत्नों का सागर हो, संसार सागर में पड़े हुए भव्य जीवों को सहारा देने वाला हो, वह आचार्य परमेष्ठी कहलाता है। अमितगतिश्रावकाचार में आचार्य परमेष्ठी की वन्दना करते हुए आचार्य के स्वरूप का भी कथन किया गया है ये चारयन्ते चरितं विचित्रं स्वयं चरन्तो जनमर्चनीयाः। आचार्यवर्या विचरन्तु ते मे प्रमोदमाने हृदयारविन्दे ।। अर्थात् जो नाना प्रकार के चारित्र का स्वयं आचरण करते हुए लोगों को आचरण कराते हैं, ऐसे अर्चनीय आचार्यवर्य मेरे प्रमुदित हृदयकमल में सदा विचरण करें। आगे पुनः आचार्य परमेष्ठी का वर्णन करते हुए कहा है कि जो पाँच प्रकार के आचार का स्वयं आचरण करते हैं, दूसरों को आचरण कराते हैं और आचरण करने वालों को अनुमति देते हैं, जो पिता के तुल्य सब जीवों के हितकारी हैं, जैसे चन्द्रमा की किरणों का स्पर्श करके चन्द्रकान्तमणि जल को छोड़ता है, उसी प्रकार जिनके चरणों का स्पर्श करके जीव अपने पापों को छोड़ देते हैं, जिनके उपदेशों से साधुजन अपने चारित्र को अत्यन्त दृढ़ करते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी श्रेष्ठपद को पाने के इच्छुक भव्य पुरुषों के द्वारा मन-वचन-काय से पूजे जाते हैं। 15 उपाध्याय :- उपाध्याय परमेष्ठी का मुख्य कार्य अध्ययन-अध्यापन है। इनमें आचार्य के सभी गुण पाये जाते हैं, यह आचार्य के समान धर्मोपदेश तो दे सकते हैं, परन्तु इनमें आदेश देने की पात्रता नही है। उपाध्याय परमेष्ठी की वन्दना करते हुए अमितगति श्रावकाचार में कहा गया है येषां तपःश्रीरनधा शरीरे विवेचिका चेतसि तत्त्वबुद्धिः। ' सरस्वती तिष्ठति वक्त्रपद्ये पुनन्तु तेऽध्यापकपुङ्गवा वः।।" अर्थात् जिनके शरीर में पापरहित निर्मल तपोलक्ष्मी सुशोभित है, जिनके चित्त में भेदविज्ञान कराने वाली विवेचक तत्त्वबुद्धि विद्यमान है और जिनके
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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