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अनेकान्त-57/3-4
अपने शरीर में भी ममता से रहित है, जो इस लोक और परलोक के फल की आकांक्षा के बिना ही जीवों को धर्म का उपदेश देता है, जो प्रासुक शुद्ध आहार को पाणिपात्र में ग्रहण करता है, इन्द्रियों को वश में रखता है, जो दिगम्बर है, आशाओं से विमुक्त है, सुख और दुःख में समान है, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ और उच्च-नीच में समभावी है, स्व-पर का तारक है, वही सच्चा गुरु है और वही सदा सम्यग्दृष्टियों द्वारा मान्य है। इसके विपरीत स्व-पर का प्रवंचक सच्चा गुरु नही है।
आचार्य अमितगति ने ज्ञानी एवं आचारवान् गुरुओं के वचनों की ग्राह्यता का वर्णन करते हुए लिखा है
ये ज्ञानिनश्चारुचारित्रभाजो ग्राह्या गुरूणां वचनेन तेषाम् ।
सन्देहमत्यस्य बुधेन धर्मो विकल्पनीयं वचनं परेषाम् ।। अर्थात् जो ज्ञानवान् और उत्तम चारित्र के धारी हैं, उन गुरुओं के वचन सन्देहरहित होने से ग्राह्य हैं। जो ज्ञानवान और उत्तम चारित्रधारी नहीं हैं, उनके वचन सन्देहास्पद होने से स्वीकार करने योग्य नही हैं। क्या श्रावक भी गुरु कहा जा सकता है? - आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठियों से नीचे किसी की भी गुरु संज्ञा नही है। कोई भी श्रावक इस संज्ञा को प्राप्त नही है। ग्यारह प्रतिमाधारी क्षुल्लक और ऐलक भी श्रावक की श्रेणी में ही है, वे गुरु नही है। किन्तु लोकव्यवहार में उपदेशक साधुभिन्न श्रावक को भी गुरु कह दिया जाता है। हरिवंशपुराण में जिनधर्मोपदेशक होने से देवों ने चारुदत्त श्रावक को गुरु कहा है तथा उसे मुनि से भी पहले नमस्कार किया है। इस सन्दर्भ में एक कथा आई है-एक समय रत्नद्वीप में चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के पास चारुदत्त श्रावक और दो विद्याधर बैठे हुए थे। उसी समय दो देव स्वर्गलोक से आये और उन्होंने मुनि को छोड़कर पहले चारुदत्त श्रावक को नमस्कार किया। वहाँ बैठे हुए दोनों विद्याधरों ने आगत देवों से नमस्कार के इस व्युत्क्रम का कारण पूछा। इसके उत्तर में देवों ने कहा कि चारुदत्त ने हम दोनों को बकरा की योनि में जिनधर्म का उपदेश दिया था, जिसके