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अनेकान्त-57/1-2
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पद्धति भी नहीं पाई जाती-अधिकांश अधिकार ही नहीं किन्तु खंड तक ऐसे वाक्यों से शुन्य पाये जाते हैं और कितने ही अधिकारों में ऐसे वाक्य प्रक्षिप्त हो रहे हैं जिनका पूर्वापर कोई भी सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता। उदाहरण के लिए 'जीवाट्ठाण' की एक चूलिका (संभवतः 7वीं या 8वीं) में “तव्वदिरित्तठाणाणि असंखेज्जगुणाणि पडिवादुप्पादठाणाणि मोत्तूण सेससव्वट्ठाणाणं गहणादो।" इस वाक्य के अनन्तर ही बिना किसी सम्बन्ध के ये वाक्य दिये हुए हैं।
"श्रीश्रुतिकीर्तित्रैविद्यदेवस्थिरं जीयाओ।।10।।
नमो वीतरागाय शान्तये"7 __ ऐसी हालत में उक्त 'खंड' शब्द निश्चित रूप से प्रक्षिप्त अथवा लेखक की किसी भूल का परिणाम है। यदि वीरसेनाचार्य को 'वेदना' अधिकार के साथ ही 'वेदनाखंड' का समाप्त करना अभीष्ट होता तो वे उसके बाद ही क्रम प्राप्त वर्गणाखंड का स्पष्ट रूप से प्रारंभ करते-फासाणियोगद्वार का प्रारंभ करके उसकी टीका के मंगलाचरण में 'फासणिओअं परूवेमो' ऐसा न लिखते। मूल ‘फास' अनुयोगद्वार के साथ में कोई मंगलाचरण न होने से उसके साथ वर्गणाखंड का प्रारम्भ नहीं किया जा सकता; क्योंकि वर्गणाखंड के प्रारंभ में भूतबलि आचार्य ने मंगलाचरण किया है, यह बात श्रीवीरसेनाचार्य के शब्दों में ही ऊपर स्पष्ट की जा चुकी है। अतः उक्त समाप्ति सूचक वाक्य में 'खंड' शब्द के प्रयोग मात्र से सोनीजी के तथा उन्हीं के सदृश दूसरे विद्वानों के कथन को कोई पोषण नहीं मिलता। उनकी इस पहली बात में कुछ भी जान नहीं है, वह एक निर्दोष हेतु का काम नहीं दे सकती। (ख) दूसरी बात बहुत साधारण है। फासाणियोगद्वार की टीका के अन्त
में एक वाक्य निम्न प्रकार से पाया जाता है"जदि कम्मफासे पयदं तो कम्मफासो सेसपण्णारसअणिओगद्दरेहि भूदबलिभयवदा सो एत्थ किण्ण परूविदो? ण एस दोसो, कम्मक्खंधस्स फाससण्णिदस्स सेसाणियोगद्दारेहिं परूवणाए कीरमाणाए वेयणाए परूविदत्थादो विसेसो खत्थि त्ति।"