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अनेकान्त-57/1-2
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अनुयोगद्वारों के भेद-प्रभेद-सहित वर्णन करते हुए अन्त के 'अप्पाबहुग' नामक 24वें अनुयोगद्वार की समाप्ति पर लिखा है- “एवं चउवीसदिमणिओगद्दारं समत्तं।" और फिर “ एवं सिद्धांतार्णावं पूर्तिमगमत् चतुर्विशति अधिकार 24 अणिओगद्दाराणि। नमः श्रीशांतिनाथाय श्रेयस्करो बभूव" ऐसा लिखकर 'जस्ससेसाण्णमए' इत्यादि ग्रन्थप्रशस्ति दी है, जिसमें ग्रन्थकार श्रीवीरसेनाचार्य ने अपनी गुरुपरम्परा आदि के उल्लेखपूर्वक इस धवला टीका की समाप्ति का समय कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी शकसंवत् 738 सूचित किया है। इससे साफ जाना जाता है कि यह 'धवल' ग्रन्थ 'वेदना-खण्ड' के साथ ही समाप्त होता है-वर्गणाखण्ड उसके साथ में लगा हुआ नहीं है।
परन्तु पं. पन्नालालजी सोनी आदि कुछ विद्वानों का खयाल है कि 'धवला' चार खण्डों की टीका न होकर पॉच खण्डों की टीका है-पाँचवाँ ‘वर्गणा' खण्ड भी उसमें शामिल है। उनकी राय में 'वेदनाखण्ड में 24 अनुयोगद्वार नहीं हैं, 'वेदना' नाम का दूसरा अनुयोगद्वार ही 'वेदनाखण्ड' है और 'वर्गणाखण्ड' फास, कम्म, पयडि नाम के तीन अनुयोगद्वारों और 'बन्धन' अनुयोगद्वार के 'बंध' और 'बंधणिज्ज' के हैं, जो कि अग्रायणीय नाम के दूसरे पूर्व की पाँचवीं च्यवनलब्धि वस्तु का चौथा पाहुड है और जिसके कदि, वेयणा (वेदना) फासादि 24 अनुयोगद्वार हैं। 'वेदना-खण्ड' इस कम्मपयडिपाहुड का दूसरा 'वेदना' नाम का अनुयोगद्वार है। इस वेदनानुयोगद्वार के कहिये या वेदनाखण्ड के कहिये 16 ही अनुयोगद्वार हैं, जिनके नाम वेदणणिक्खेब, वेदणणयविभासणदा, वेदणणाम-विहाण, वेदणदव्वविहाण, वेदणखेत्तेविहार, वेदण-कालविहाण, वेदणभावविहाण आदि हैं।'
ऐसी राय रखने और कथन करने वाले विद्वान् इस बात को भुला देते हैं कि 'कम्मपयडिपाहुड' और 'वेयणकसीणापाहुड' दोनों एक ही चीज के नाम हैं। कर्मो का प्रकृत स्वरूप वर्णन करने से जिस प्रकार 'कम्मपयडिपाहुड' गुण नाम है उसी प्रकार 'वेयणकसीणपाहुड' भी गुणनाम है; क्योंकि 'वेदना' कर्मों के उदय को कहते हैं, उसका निरवशेषरूप से जो वर्णन करता है उसका नाम 'वेयणकसीणापाहुड' है; जैसा कि 'धवला' के निम्न वाक्य से प्रकट है, जो आरा