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अनेकान्त-56/1-2
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5. सांसारिक प्रलोभनों का त्याग 6. आत्मानुभूति के लिये गुरू का महत्त्व 7. बाह्य आडंबर का त्याग 8. चित्तशुद्धि या आत्मनिर्मलता का स्थान सर्वोपरि 9. विकास के सोपानमार्ग का अवलोकन 10. पुण्य पाप दोनों का त्याग 11 योग मार्ग का निरूपण 12. प्रतीको एव पारिभाषिक शब्दावलियो का प्रयोग 13. अभिव्यक्ति की सरसता 14. आत्मा के कर्त्तत्व और भोक्तृत्व शक्ति का विश्वास 15. आत्मा और परमात्मा मे तात्त्विक अन्तर न होने पर भी व्यवहारनय से
पृथकता का विवेचन एव परमात्मा पद की प्राप्ति के लिये दाम्पत्य भाव
का समारोह। सामान्य रहस्यवाद और जैन रहस्यवाद में अन्तर
सामान्य (औपनिषदिक) रहस्यवाद मे परमात्मा और जीवात्मा मे अशी और अश का सम्बन्ध है। जब जीवात्मा और परमात्मा का एकीकरण होता है तब जीवात्मा का अस्तित्व परमात्मा मे विलीन हो जाता है, पर जैन रहस्यवाद में आत्मा और परमात्मा में अश अशी का सम्बन्ध नही है। आत्मा और परमात्मा दोनो मे शक्ति की अपेक्षा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन अनन्त सुख और अनन्तवीर्य ये चार गुण पाये जाते है। कर्मबद्ध आत्मा मे ये अनन्त चतुष्टय प्रकट नही होते कर्मयुक्त होते ही अनन्त चतुष्टय प्रकट हो जाते है और आत्मा परमात्मा हो जाता है। आत्मा की शुद्धतम स्थिति ही परमात्मा है। परमात्मा होने पर ही उसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रहता है। यहा पर आत्मा एक नही है। अनन्त आत्माए है और अनन्त परमात्मा है।
सामान्य रहस्यवाद और जैन रहस्यवाद का साधना मार्ग भी भिन्न है।