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________________ अनेकान्त-56/1-2 02 रही है और भविष्य में भी अनन्तकाल तक रहेगी। साधक पुद्गल के अभाव की चिन्ता नहीं करता, अपितु आत्मा मे पुद्गल के प्रति होने वाली ममता का त्याग करता है। जब पुद्गल की ममता दूर हो जाती है तब एक पुद्गल तो क्या अनन्तानन्त पुद्गल भी आत्मा का कुछ नही बिगाड़ सकते। सम्यक्ज्ञान का अर्थ है आत्मा के विशुद्ध रूप का ज्ञान। सम्यकज्ञान थोड़ा भी हो तो वह अधिक अज्ञान की अपेक्षा श्रेष्ठ है। अतः आत्मसाधना मे ज्ञान की लोलुपता अपेक्षित नहीं है ज्ञान की विशुद्धता अपेक्षित है। आत्मसत्ता की सम्यक प्रतीति और आत्मा स्वरूप की सम्यक् सप्ति हो जाने पर भी जब तक उस प्रतीति और सप्ति के अनुसार आचरण नहीं किया जाएगा, तब तक साधक की साधना परिपूर्ण नही हो सकेगी। प्रतीति और ज्ञप्ति के साथ आचार आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। आत्मा का विश्वास और ज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी जब तक उसे परपदार्थो से पृथक् करने का प्रयत्न नही किया जाएगा, तब तक अभीष्ट सिद्धि नही हो सकती। अत: सम्यकदर्शन और सम्यकज्ञान के होने पर भी सम्यकचारित्र के बिना स्वस्वरूप की प्राप्ति नही हो सकती। आत्मा का अपने सकल्प विकल्प और विकारी भावो को छोड़कर स्वरूप मे लीन होने की प्रक्रिया का नाम ही सम्यकचारित्र है। यही सर्वोकृष्ट शील और विशद्ध सयम है। चारित्र, आचार, संयम और शील आत्मा की ही शुद्ध शक्ति विशेष हैं।' जैन दृष्टि से प्रतीति को विचार में और विचार को आचार मे परिवर्तित करना ही पूर्ण साधना है। चारित्र अथवा आचार का अर्थ बाह्य क्रियाकांड नही है।' आत्मस्थिति रूप सम्यक्चारित्र ही उपादेय है। चारित्र आत्मा का गुण है, इसी की साधना से वीतराग भाव रूप आत्मस्वरूप की उपलब्धि होती है। वीतराग भाव के उत्पन्न होते ही साधक राग और द्वेष से रहित हो जाता है। जितने अश में राग या द्वेष होते है उतने अश में चारित्र नही होता। अतः साधक अपनी साधना द्वारा आत्मा को काम क्रोध मोह आदि विकारो से पृथक कर परमात्मपद को प्राप्त कर लेता है।।
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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