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अनेकान्त-56/1-2
(7) एवंभूत- क्रिया की प्रधानता से कहा जाय, वह एवंभूत नय है। 48
भात पकाने के तैयारी करने वाले को भात पकाने वाला कहना, द्रव्य कहने से सभी जीव-अजीव द्रव्यों का ग्रहण करना, द्रव्य के छः भेद करना, वर्तमान पर्याय को ही ग्रहण करना, दार-भार्या-कलत्र एकार्थक होन पर भी लिग भेद से भिन्न मान इन्द्र-शक-पुरन्दर में भिन्नार्थकता होने पर भी रूढि से एक अर्थ का ग्रहण करना तथा जब जो जिस अवस्था में हो उसे तब वैसा ही कहना उक्त सातों नयों के क्रमशः उदाहरण है। ये सातों नय क्रमश: उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषय वाले है तथा इनमें पूर्व-पूर्व नय की उत्तर-उत्तर नय के प्रति कारणता है। अत: इनके क्रम को इसी प्रकार कहा जाना सहेतुक है। नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ही होते हैं, गुणार्थिक नहीं
आचार्य अकलकदेव ने कहा है कि द्रव्य के सामान्य और विशेष ये दो ही स्वरूप है। सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये एकार्थक शब्द है। विशेष, भेद और पर्याय ये एकार्थक शब्द हैं। सामान्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थिक नय है और विशेष को विषय करने वाला पर्यायार्थिक नय। दोनो से समुदित अयुतसिद्ध रूप द्रव्य है। अतः जब गुण को द्रव्य का ही सामान्य रूप माना गया है तब उसके ग्रहण करने के लिए द्रव्यार्थिक नय से भिन्न गुणार्थिक नय मानने की कोई आवश्यकता नही है। क्योंकि नय विकलादेशी है और समुदाय रूप द्रव्य सकलादेशी है। अत: समुदाय रूप द्रव्य तो प्रमाण का विषय है, नय का नही। आचार्य अकलंक देव ने 'तदुभयसग्रहः प्रमाणम्' कहकर यह पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयो का संग्रह प्रमाण है।
नयाभास ___ परस्पर सापेक्ष नय ही सम्यक् होते हैं, निरपेक्ष नहीं। जिस प्रकार परस्पर सापेक्ष रहकर ही तन्तु आदि पट रूप कार्य का उत्पादन करते है, उसी प्रकार नय भी सापेक्ष रहकर ही सम्यग्ज्ञान रूप कार्य के कारण बनते है। निरपेक्ष नयो को ही मिथ्यानय, कुनय या नयाभास समझना चाहिए।