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________________ 78 अनेकान्त-56/1-2 मूल नयों की संख्या के विषय में पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने लिखा है कि “षट्खण्डागम में नय के नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द इन पाँच भेदों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि कषायपाहुउ में ये ही पाँच भेद निर्दिष्ट हैं तथापि वहाँ नैगम के संग्रहिक और असंग्रहिक ये दो भेद तथा तीन शब्द नय बतलाये हैं। श्वेताम्बर तत्त्वार्थभाष्य और भाष्यमान्य सूत्रों की परम्परा कषायपाहुड की परम्परा का अनुकरण करती हुई प्रतीत होती है। उसमें भी मूल नय पाँच माने गये हैं और नैगम के दो तथा शब्द नय के तीन भेद किये गये हैं। तत्त्वार्थभाष्य में जो नैगम के देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी ये दो भेद किये है तो वे कषायपाहुड में किये गये नैगम के संग्रहिक और असंग्रहिक इन दो भेदो के अनुरूप ही हैं। सिद्धसेन दिवाकर नैगम नय को नही मानते, शेष छ: नयों को मानते हैं। इसके सिवा सब दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थों में स्पष्टतः सूत्रोक्त सात नयों का ही उल्लेख मिलता है। इस प्रकार विवक्षाभेद से यद्यपि नयो की संख्या के विषय में अनेक परम्पराएँ मिलती हैं, तथापि वे परस्पर एक दूसरे की पूरक ही हैं।''44 उक्त सातों नय दो नय रूप नैगम आदि सातो नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो भागों में विभक्त हैं। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है-'स द्वेधा द्रव्यार्थिक : पर्यायार्थिकश्चेति।' 45 धवला मे भी कहा गया है कि तीर्थकरों के वचनों के सामान्य प्रस्तार का मूल व्याख्याता द्रव्यार्थिक नय है तथा उन्हीं वचनों के विशेष प्रस्तार का मूल व्याख्याता पर्यायार्थिक नय है। शेष सभी नय इन दोनों ही नयों के विकल्प या भेद हैं। 46 भास्करनन्दि ने कहा है कि ये नैगमादि सातो नय ही दो नय रूप होते हैं। क्योंकि श्रुतज्ञान के द्वारा गृहीत वस्तु के अश से द्रव्य और पर्याय जिसके द्वारा प्राप्त किये जाते है वे नय हैं, इस तरह व्युत्पत्ति है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे ये दो नय हैं। द्रव्य, सामान्य, अभेद, उत्सर्ग और अन्वय ये शब्द एकार्थवाची हैं। द्रव्य है प्रयोजन जिसका उसे द्रव्यार्थिक नय कहते हैं। द्रव्य विषय वाला द्रव्यार्थ नय है। पर्याय, विशेष. भेद, अपवाद, व्यतिरेक ये शब्द एकार्थवाची हैं। पर्याय है प्रयोजन जिसका उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं। अथवा पर्याय विषय वाला पर्यायार्थनय है। द्रव्य के अस्तिव को स्वीकार करे वह द्रव्य है। इस प्रकार की बुद्धि है जिसकी वह नय द्रव्यास्तिक है। पर्याय के अस्तित्व को स्वीकार करे वह पर्याय है। इस
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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