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________________ अनेकान्त-56/1-2 आचार्य उमास्वामी ने इस कथन से स्पष्ट किया है प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा। प्रमादवश प्राणो के घात करने को हिंसा कहते हैं। प्रमत्त शब्द मन की कलुषता, अज्ञानता, असावधानी के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। गृहस्थ जीवन मे मनुष्य नाना क्रियाओ का प्रतिपादन करता है। किन्तु सभी क्रियाएं सावधानी और संयम-पूर्वक नहीं होती। अनेक कार्यों को करते हुए मन में कषायभाव, कटुता उत्पन्न हो जाती है। इससे आत्मा की निर्मलता धुधली पड़ जाती है। भावनाओ मे विकार उत्पन्न हो जाते है। इन्हीं दुष्परिणामों से युक्त हो कोई कार्य करना हिंसा है। क्योकि दुष्परिणामी व्यक्ति के द्वारा भले दूसरे प्राणियो का घात न हो लेकिन उसकी आत्मा का घात स्वयमेव हो जाता है। इसी अर्थ मे वह हिसक है।। क्योंकि किसी दूसरे से किसी दूसरे का प्राण-घात सम्भव ही नही है। प. आशाधरजी ने हिसा की व्याख्या और सरल शब्दो में की है। उनका कथन है-संकल्पपूर्वक व्यक्ति को हिंसात्मक कार्य नही करना चाहिए। उन सब कार्यों व साधनों को, जिनसे शरीर द्वारा हिंसा, हिसा की प्रेरणा व अनुमोदन सम्भव हो, यत्नपूर्वक व्यक्ति को छोड़ देना चाहिए। यदि वह गृहस्थ जीवन मे उन कार्यों को नहीं छोड़ सकता तो उसे प्रत्येक कार्य को करते समय सतर्क और सावधान रहना चाहिए। देवता, अतिथि, मन्त्र, औषधि आदि के निमित्त तथा अन्धविश्वास और धर्म के नाम पर संकल्पपूर्वक प्राणियो का घात नहीं करना चाहिए। क्योंकि अयत्नाचार पूर्वक की गई क्रिया में जीव मरे या न मरे हिंसा हो ही जाती है। जबकि यत्लाचार से कार्य कर रहे व्यक्ति को प्राणिवध हो जाने पर भी हिंसक नहीं कहा जाता है। वस्तुतः हिसा करने और हिंसा हो जाने में बहुत अन्तर है। निष्कर्ष यह, संकल्पपूर्वक किया गया प्राणियों का घात हिंसा है, और उनकी रक्षा एवं बचाव करना अहिसा।" ___ अहिंसा के प्रतिपादन मे जैन-साहित्य मे बहुत कुछ कहा गया है। इसमे प्रधानतः प्राणीमात्र के कल्याण की भावना निहित है। अन्य धर्म व संस्कृतिया अहिंसा का घोष करती हुई भी हिंसात्मक कार्यों में अनेक बहानों से प्रवृत्त
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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