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________________ 120 अनेकान्त-56/3-4 अर्थ- जो वास्तव में अरहंत भगवान को द्रव्य रूप से, गुण रूप से ओर पर्याय रूप से जानता है वह वास्तव में अपने आत्मा को जानता है। क्योंकि दोनों में निश्चय से कोई अंतर नहीं है। उसका मोह अवश्य लय (क्षय) को प्राप्त होता है। ऐसा जीव आत्मा के सम्यक् तत्व को उपलब्ध कर रागद्वेष को छोड़ता हुआ शुद्धात्मा को प्राप्त करता है। सभी भव्य आत्माएँ जिनोपदिष्ट द्रव्य के त्रिलक्षणात्मक सत् स्वरूप एवं त्रिपदात्मक-स्वरूप को जानकर आत्मानुभव करें और त्रिरत्न रूप मोक्ष मार्ग द्वारा शुद्धात्मा के आश्रय से स्व-समय रूप शुद्धात्मा की प्राप्ति करें, यही मंगल भावना है। इसमें ही आत्मा के अभ्यूदय एवं निःश्रेयस पद की प्राप्ति सम्भव है। यही लोक कल्याण की मंगल भावना का सजक है। जीव-पुद्गल द्रव्य की पर्याय द्रव्य व्यजन पर्याय गुण/अर्थ पर्याय स्वभाव द्रव्य व्यजन पर्याय विभाष द्रव्य व्यजन पर्याय स्वभाव गुण पर्याय विभाव गुण पर्याय | कर्मापाधि रहित सिद्ध 2 अविभागी परमाणु कर्मोपाधि सहित मनुष्य देव 2 पुद्गल स्कष । द्रव्य कर्म-भाव कर्म रहित शुद्ध जान दर्शनादि की पर्याय 2 एक पुद्गल परमाणु के रूप रस आदि । मतिज्ञानादि चार ज्ञान और तीन अज्ञान की पर्याय 2 पुद्गल की स्कय पर्याय समानजातीय पर्याय असमान जातीय जीव-पुद्गल पुद्गल-स्कष की मिश्रित मनुष्य देव पर्याय कारण शुद्ध पर्याय पारिणामिक भाव को परिणति कार्यशुम पर्याय केवलज्ञानादि की अनत चतुष्टय पर्याय सम्यक् विभाव पर्याय मतिज्ञानादि की स्मयक पर्याय मिथ्या विभाव । यि कुमति (अज्ञान) आति की मिथ्या पर्याय वी-369 ओ श्री एम. कालोनी अमलाई, जिला-शहडोल (म.प्र.) फोन : 07652-286268
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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