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अनेकान्त-56/1-2
भावचिह्नी एवं द्रव्यचिह्नी साधु का बाह्य भेष यद्यपि एक जैसा ही होता है; तथापि आत्मज्ञान के सद्भाव के कारण भावचिह्नी साधु कषायो का परिहार करता हुआ आत्मा में वीतरागता के अंशों की वृद्धि करता है और अन्ततः कर्मो से मुक्त हो जाता है। इसी कारण से 'समयसार' में आचार्य कुन्दकुन्द ने भावचिह्न सहित बाह्यचिह्न रूप दिगम्बर मुद्रा को मोक्षमार्ग माना है (समयसार 410-411)।
द्रव्यचिह्नी साधु मंद कषाय को धर्म मानने के कारण पुण्य का बन्ध करता है। वह मनुष्य एवं देवादिक सद्गति को तो प्राप्त करता है; किन्तु कर्म-बन्धन से मुक्त नहीं होता। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार द्रव्यचिह्नी साधु को बोधि या समाधि की प्राप्ति नहीं होती (भावपाहुड गाथा 72)। भावचिह्न--रहित बाह्य साधु के भेष से मोक्षमार्ग का विनाश होता है (मोक्षपाहुड 61)। यह पाप से युक्त एवं अपयश का कारण है (भावपाहुड 61)। धर्म से रहित साधु को आचार्य कुन्दकुन्द ने ईख के फल के समान मानते हुए उसे नग्न-रूप में रहने वाला नट श्रमण निरूपित किया है (भावपाहुड 71)। उन्होंने ऐसे दर्शन रहित द्रव्यचिह्नी साधु को 'चल शव' जैसे शब्द से सम्बोधित किया है (भावपाहुड 143)। ऐसे साधु का ज्ञान एवं चरित्र क्रमशः बालश्रुत एव बालचरित्र जैसा निरर्थक होता है। (मोक्षपाहुड 100)। उन्होंने प्रश्न किया हैं कि ज्ञान रहित चारित्र, दर्शन रहित तप एवं भाव विहीन आवश्यक क्रियाए आदि से युक्त लिंग (भेष) से सुख की प्राप्ति कैसे संभव है? (मोक्ष पाहुड 57)। भावचिह्न की प्रधानता जिनमार्ग में भावचिह्न की प्रधानता प्रतिपादित करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने 'भावपाहुड' में कहा कि पहले मिथ्यात्व आदि दोषों को छोड़कर भाव से अंतरंग नग्न हो कर शुद्धात्मा का श्रद्धान, ज्ञान एवं आचरण करे पश्चात् द्रव्य से बाह्य मुनिमुद्रा (लिंग) प्रकट करे, यही जिनाज्ञा एवं मोक्षमार्ग है (भावपाहुड 73)। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने कहा कि जैसे भी बने सब तरह के प्रयत्न कर आत्मा को जानो, उसका श्रद्धान करो, उसे प्रतीत करो और उसका आचरण करो; मोक्ष की प्राप्ति तभी होगी (भावपाहुड-89; सूत्रपाहुंड 16)।