________________
त-56/3-4
107
समर्थक है। जो इसके विपरीत है वह हमारे लिए स्वीकार्य नहीं है। आज संघों में मात्र अपनी आचार्य परम्परा का इस प्रकार महत्त्व दिया गया है कि पहले की परम्परा विस्मृत हुई दिखाई देती है। श्वेताम्बर-दिगम्बर के झगड़ो एवं असंवेदशीलता ने तो पूरी द्वादशांग वाणी पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया।
एक बात जो मुख्य रूप से अखरने वाली बात है। वह है कि हमारे साहित्य को इतिहास के स्रोत के रूप मे उस तरह से स्वीकार नहीं किया जाता। जिस प्रकार बौद्ध ग्रन्थ एव रामायण महाभारत आदि को स्वीकार किया जाता है इसके लिए आवश्यक है कि हम अपने साहित्य को व्यवस्थित रूप से अनुवाद सहित उपलब्ध कराएं।
आज हमारे पास जो ऐतिहासिक धरोहर है उनका भी हम सही मूल्याङ्कन नही करा पा रहे है जैसे भारतवर्ष का नाम-भरत के आधार पर हुआ जैसे भारत का प्रथम गणतन्त्र वैशाली था। __ हमको दिगम्बर, श्वेताम्बर के आपसी मतभेदों को कुछ सीमाओं तक तोडना होगा जैसे-आगमों के सन्दर्भो में आदि। इस प्रकार जैन इतिहास के लेखन में अभी बहुत कुछ करना बाकी है।
-केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ
लखनऊ