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________________ 94 अनेकान्त-56/3-4 किसी भी सम्पदा से हमारे जीवन का उत्कर्ष होने वाला नहीं है। पाप के साथ आने वाली सम्पत्ति हमें दुर्गति के गर्त में ही ले जायेगी। ऐसी स्थिति में सम्पदा से क्या प्रयोजन' 'जैन अनुशासन की आचार संहिता' में परिग्रह की लोलुपता को सभी पापों की जड़ बताते हुए कहा गया है 'संग णिमित्तं मारइ, भणई अलीक, करेज्ज चोरिक्कं। सेवइ मेहुण-मिच्छं, अपरिणामो कुणदि जीवो।।' -समणसुत्तं अर्थात् 'मनुष्य परिग्रह के लिए ही हिंसा करता है, संग्रह के निमित्त ही झूठ बोलता है और उसी अभिप्राय से चोरी के कार्य करता है। कुशील भी व्यक्ति के जीवन में परिग्रह की लिप्सा के माध्यम से ही आता है। इस प्रकार परिग्रह लिप्सा आज का सबसे बड़ा पाप है। उसी के माध्यम से शेष चार पाप हमारे जीवन में प्रवेश पा रहे हैं। लिप्सा ही वह छिद्र है जिसमें से होकर हमारे व्यक्तित्व के प्रासाद में पाप का रिसाव हो रहा है।' वस्तुतः परिग्रह की मूल कारण इच्छाओं/तृष्णाओं का कोई ओर-छोर नहीं है। वे अनन्त होती हैं। इसी दृष्टि से अर्धमागधी प्राकृत आगम 'उत्तराध्ययन सूत्र' में भी इच्छाओं को आकाश की तरह अन्तहीन निरूपित किया है 'इच्छा हु आगाससमा अणतिया।।' -उत्तराध्ययनसूत्र 6/48 अर्थात् इच्छा आकाश के समान अनन्त होती है। इस सम्बन्ध में हम स्वयं प्रश्न करें तो उत्तर भी स्वतः स्फूर्त होकर हमारे समक्ष उपस्थिति हो सकेंगे। यथा हम दुःखी क्यों हैं? इसलिए कि हम कुछ चाहते हैं। इसका अर्थ? अर्थ यही कि इच्छा स्वयं दुःख है।
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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