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________________ अनेकान्त-56/3-4 है। वस्तुतः ‘स्याद्वाद' अनेकान्तात्मक वस्तु तत्त्व को अभिव्यक्त करने की प्रणाली है। ‘स्याद्वाद' पद ‘स्यात्' और 'वाद' इन दो शब्दों के योग से बना है। 'स्यात' यह एक निपात शब्द है। इसका अर्थ 'शायद' या संदेह नहीं। इसका अर्थ है कथञ्चित, किसी अपेक्षा से, किसी दृष्टि विशेष से। वाद शब्द का अर्थ है मान्यता, कथन, वचन अथवा प्रतिपादन। जो ‘स्यात्' का कथन अथवा प्रतिपादन करने वाला है वह स्याद्वाद है। तात्पर्य यह है कि जो विरोधी धर्म का निराकरण न करता हुआ अपेक्षा विशेष से विवक्षित पक्ष/धर्म का प्रतिपादन करता है वह ‘स्याद्वाद' है। भारतीय संस्कृति के विशेषज्ञ मनीषी डॉ. 'रामधारी सिंह दिनकर' का स्पष्ट अभिमत है कि 'अनेकान्त का अनुसंधान भारत की अहिंसा-साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितनी शीघ्र अपनायेगा, विश्व में शान्ति भी उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी।' जैन दर्शन के मनीषी डॉ. भागेन्द का स्पष्ट अभिमत है कि-जैन धर्म केवल शारीरिक अहिंसा तक ही सीमित नहीं, वरन् वह बौद्धिक अहिंसा को भी अनिवार्य मानता है। यह बौद्धिक अहिंसा ही जैन-दर्शन का 'स्याद्वाद' या अनेकान्तवाद है। यह विश्व के दर्शनों में अनूठी वस्तु है। इसके महत्त्व को देशी-विदेशी सभी विचारकों ने एक स्वर से स्वीकार किया है। आज विश्व में अशांति का मूल कारण यही है कि एक मत या वाद को मानने वाले लोग अपने से भिन्न मत या वाद को मानने वाले लोगों को आँख बन्द कर गलत समझते हैं। लोग अपने प्रतिपक्षियों के प्रति असहिष्णु हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में भी यह सत्य है कि कोई भी मत पूर्ण सत्य अथवा पूर्ण असत्य नहीं है। वस्तु एक ओर से जैसी दिखाई पड़ती है, दूसरी ओर से वैसी ही दिखाई नहीं पड़ती। अतः बिना विवेक के किसी भी मान्यता या मत को सर्वथा खण्डित करने का कार्य हिंसा का कार्य है। सत्य को पहचानने के अनेक मार्ग हैं, सत्य के मार्ग पर आरूढ़ व्यक्ति के दुराग्रह और हठधर्मिता समाप्त
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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