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अनेकान्त-56/3-4
सूत्रग्रन्थ में, जो सम्भवतया इतर दर्शनों के सूत्र ग्रंथों से प्रभावित होकर उस कमी की पूर्ति के उद्देश्य से रचा गया था, ज्ञान को ही प्रमाण बतलाकर उसके दो भेद प्रत्यक्ष और परोक्ष किये हैं। यहीं से जैन दर्शन में प्रमाण की चर्चा का सूत्रपात हुआ है।'
अब जब प्रमाण को ज्ञानरूप सिद्ध किया जा चुका है तो ज्ञान के भेद ही प्रमाण के भेद प्रमेद मानने में कोई आपत्ति नहीं, जैन दर्शन में ज्ञान के पाँच भेद स्वीकार किये गये हैं, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल। यही मौलिक जैन परम्परा है, अतः अन्य किसी दर्शन में ये भेद नहीं पाये जाते दूसरे जैन कर्म सिद्धान्त में ज्ञान का आवरण करने वाले ज्ञानावरणी कर्म के पाँच भेद इन्हीं भेदों को आधार मानकर किये गये हैं। ये हैं-मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण। तत्त्वार्थ सूत्र में इन पाँच भेदों का कथन करके पहले इन्हें प्रमाण बताया है फिर प्रमाण के प्रत्यक्ष
और परोक्ष में इन पांचों का विभाजन करते हुए मति और श्रत को परोक्ष प्रमाण तथा शेष तीन ज्ञानों को प्रत्पक्ष प्रमाण बताया है। यथा
'मति श्रुतावधि मनःपर्यय केवलानि ज्ञानम्।' 'तत्प्रमाणे।' 'आद्ये परोक्षम्।'
'प्रत्यक्षमन्यत्। 20 अर्थात् मति श्रुत अवधि मनःपर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान ही प्रमाण है। ये सभी दो प्रमाण स्वरूप हैं। पहले के दो अर्थात् मति और श्रुत परोक्ष हैं तथा शेष अवधि मनःपर्यय और केवल ये तीन प्रत्यक्ष हैं।
तत्त्वार्थसूत्रकार ने ही मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता नामक ज्ञानों को अनर्थान्तर कहा है_ 'मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ।।
इस प्रकार आचार्य उमास्वामी ने अपने समय में प्रचलित स्मृतिः प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान आदि प्रमाणों का अन्तर्भाव मतिज्ञान में करके जैन प्रमाण का सिक्का जमा दिया। अब तक के भेदों को एक रेखाचित्र में निम्न प्रकार