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________________ अनेकान्त-56/3-4 विविध अवस्थाऐं हमारे पुरुषार्थ के अधीन हैं अतः कर्म का सम्यग् दर्शन करके हमें अनुकूल सत्पुरुषार्थ में लग जाना चाहिए। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने लिखा है- 'अनेकान्त कोरा दर्शन नहीं है, यह साधना है। एकांगी आग्रह राग और द्वेष से प्रेरित होता है। राग-द्वेष क्षीण करने का प्रयत्न किये बिना एकांगी आग्रह या पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से मुक्ति नहीं पायी जा सकती। जैसे-जैसे अनेकान्त दृष्टि विकसित होती है, वैसे-वैसे राग-द्वेष क्षीण होता है। जैनदर्शन ने राग-द्वेष क्षीण करने के लिए अनेकान्त दृष्टि प्रस्तुत की। इसी आलोक में आज सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक क्षेत्रों में राग-द्वेष को नष्ट कर अनेकान्त को अपनाने की आवश्यकता है। जैन दर्शन का कर्मवाद आज अनेक समस्याओं से निजात दिलाने में समर्थ है।' सन्दर्भ 1 न्याय सूत्र 4/1 ईश्वर. कारण पुरुषकर्माफलस्य दर्शनात्, 2 साख्य सूत्र 5/25 अन्त करणधर्मत्व धर्मादीनाम्, १ अभिधर्म कोष 4:1 कर्मज लोकवैचित्र्य चेतना मानस च तत्, 4 न्यायमञ्जरी, पृ 279, 5 प्रवचनसार की टीका, पृ 165, 6 तत्त्वार्थसूत्र, 2/41, 7 आचार्य अकलक तत्त्वार्थवार्तिक, प्रथम भाग, पृ 404-405, 8 द्रव्यसग्रह गाथा-7, 9 कर्म सिद्धान्त 38, 10 आप्त परीक्षा 113,114, 11 तत्त्वार्थवार्तिक 8/2 की टीका, द्वितीय भाग, पृ 450, 12 आचार्य महाप्रज्ञ कर्मवाद, पृ 28, 13 समयसार 80, 14 तत्त्वार्थसूत्र 8/2, 15 वही 8/3, 16 सन्मति तर्क 1/19, 17 आचार्य अकलक-तत्त्वार्थवार्तिकम्, द्वितीय भाग, पृ 461, 18 सौवाणिय पि णियल बधदि कालायस पि जह पुरिसं। बदिऽएव जीव सुहमसुह वा कद कम्म।। --समयसार 153 19 पुनात्मात्मान पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्। तत्सद् वेद्यादि। पाति रक्षति आत्मान शुभादिति ाप। तत्सद्वेद्यादि। सवार्थसिद्धि, पृ 245, 20. “जीविदरे कम्मचपे पुण्ण पावोत्ति होदि पुण्ण तु"। गोम्मटसार-जीवकाण्ड गाथा 643 21 वर वयतेवहि सग्गो मा दुक्ख होउ णिरई इयरेहि छायातवट्ठियाण पडिवालताण गुरुभेय।। मोक्षपाहुड गाथा 25 22 तत्त्वार्थवार्तिक द्वितीय भाग, पृ 254, 23 य पुण्यपापयोर्मूढो विशेषं नावबुध्यते। स चरित्र परिभ्रष्ट ससार परिवर्धका.।। -योगसार प्राभृत 3/37 24 कालो सहाव णियई, पुवकय कारणेगंता। मिच्छत्त ते चेव उ समासमो होति सम्मत्त।। -सन्मति प्रकरण 3/53 25 प फूलचन्द सिद्धान्त शास्त्री, अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ 212, 26. आप्तमीमासा-91,
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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