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अनेकान्त-56/3-4
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पाप आस्रव का। ___ आचार्य अमितगति ने लिखा है जो मूढ़ पुण्य-पाप दोनों के विशेष भेद को अथवा दोनों में अविशेष-अभेद को नहीं जानता वह चारित्र से परिभ्रष्ट है और संसार का परिवर्द्धक है, भव-भ्रमण करने वाला दीर्घ संसारी है। 6. कर्मसिद्धान्त में पंच समवाय की मान्यता – जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त के अन्तर्गत काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ-इन पांच समवाय को स्वीकार किया गया है। सामान्यतः नियम यह है कि प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति में ये पांच कारण नियम से होते हैं। स्वभाव से द्रव्य की स्वशक्ति या नित्य उपादान लिया गया है। पुरुषार्थ से जीव का बल वीर्य लिया गया है। काल से स्वकाल और परकाल का ग्रहण किया गया है, नियति से समर्थ उपादान या निश्चय की मुख्यता दिखलाई गई है और कर्म से बाह्य निमित्त का ग्रहण किया गया है। अष्ट सहस्री, (पृ. 257) में भट्टाकलंकदेव ने एक श्लोक लिखा है
तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः।
सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता।। जिस जीव की जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है उसकी वैसी ही बुद्धि हो जाती है। वह प्रयत्न भी उसी प्रकार का करने लगता है और उसे सहायक भी उसी के अनुसार मिल जाते हैं। __ भवितव्यता क्या है? जीव की समर्थ उपादान शक्ति नाम ही तो भवितव्यता है। भवितव्यता की व्युत्पत्ति है-'भवितुम योग्यं भवितव्यम, तस्य भावः भवितव्यता।' जो होने योग्य हो उसे भवितव्य कहते हैं और उसका भाव भवितव्यता कहलाती है। जिसे हम योग्यता कहते हैं उसी का नाम भवितव्यता है। द्रव्य की समर्थ उपादान शक्ति कार्य रूप से परिणत होने के योग्य होती है इसलिए समर्थ उपादान शक्ति भवितव्यता या योग्यता शब्द द्वारा अभिहित