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अनेकान्त-56/3-4
जीव मिथ्यात्व आदि परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गलो का कर्मरूप परिणमन करता है और पुद्गल कर्म के निमित्त से जीव भी मिथ्यात्व आदि रूप परिणमता है।
'तत्त्वार्थसूत्र' में बंध को परिभाषित करते हुए लिखा हैसकषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बन्धः' ।"
अर्थात् जीव सकषाय होने से कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, यही बन्ध है।
बन्ध दो प्रकार का है-एक भाव बन्ध और दूसरा द्रव्य-बन्ध । जिस राग, द्वेष और मोह आदि विकारी भावों से कर्म का बन्धन होता है उन भावों को भाव-बन्ध कहते हैं। कर्म-पुद्गलों का आत्म प्रदेशों से सम्बन्ध होना द्रव्य बन्ध हैं।
भाव बन्ध-नोकर्म बन्ध और कर्म बन्ध के भेद से दो प्रकार का है। माता-पिता-पुत्र आदि का स्नेह सम्बन्ध नोकर्म है। जो कर्म बन्ध है उसको पुनर्भविक कर्म बन्ध सन्तति का सद्भाव होने से सादि, सान्त और पूर्णतया नाश न होने से अनादि अनन्त जानना चाहिए क्योंकि बीज और अकुर के समान इसके प्रादुर्भाव की सन्तान चलती रहती है।
कर्म बन्ध के चार भेद भी बताये गये हैं-प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध। आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है
कम्म जोग णिमित्तं बज्झइ बंधट्ठिइ कसायवसा।
अपरिणउच्छिण्णेसु य बंधट्ठिइ कारणं णत्थि।।" मन, वचन और शरीर के व्यापार से उत्पन्न आत्मा के प्रदेशों में हलन-चलन रूप योग से कर्म ग्रहण किये जाते हैं तथा क्रोध, अहंकार, माया और लोभ रूप कषाय से बन्ध की स्थिति निर्मित होती है। परन्तु उपशान्त कषाय तथा क्षीण कषाय (ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में) की अवस्था में कर्मबन्ध की स्थिति का कोई कारण विद्यमान नहीं रहता।