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________________ 30 अनेकान्त-56/3-4 जाने के बाद उसे पुनः दूध में परिणत करना असंभव है अथवा जिस प्रकार स्वर्ण नामक पदार्थ मूलतः पाषाण में पाया जाता है परन्तु एक बार स्वर्ण बन जाने पर उसे किट्टिमा के साथ मिला पाना असंभव है। उसी प्रकार जीव भी सदा ही मूलतः कर्म बद्ध (सशरीरी) उपलब्ध होता है, परन्तु एक बार कर्मो से सम्बन्ध छूट जाने पर पुनः इसका शरीर के साथ सम्बन्ध हो पाना असंभव है। जीव मूलतः अमूर्तिक या कर्म रहित नहीं है, बल्कि कर्मो से संयुक्त रहने के कारण वह अपने स्वभाव से च्युत उपलब्ध होता है। इस कारण आत्मा मूलतः अमूर्तिक न होकर कथंचित् मूर्तिक है। ऐसा स्वीकार कर लेने पर उसका मूर्त कर्मों के साथ बंध हो जाना, विरोध को प्राप्त नहीं होता। इतना अवश्य है कि एक बार मुक्त हो जाने पर वह सर्वथा अमूर्तिक हो जाता है, और तब कर्म के साथ उसके बंध होने का प्रश्न ही नही उत्पन्न होता है।' 3. भावकर्म और द्रव्यकर्म में कथंचित् भिन्नाभिन्नता- आचार्य विद्यानन्दि ने कर्म के भेदों के सम्बन्ध में लिखा है कर्माणि द्विविधान्यत्र द्रव्यमावविकल्पतः। द्रव्यकर्माणि जीवस्य पुद्गलात्मान्यनेकधा ।। भावकर्माणि चैतन्य विवर्तात्मानि भान्ति नुः । क्रोधादीनि स्ववेद्यानि कथञ्चिदभेदतः।। अर्थात् कर्म दो प्रकार के हैं-1. द्रव्यकर्म, 2. भावकर्म । जीव के दो द्रव्य कर्म हैं, वे पौद्गलिक हैं और उनके अनेक भेद हैं तथा जो भाव कर्म हैं वे आत्मा के चैतन्यपरिणामात्मक हैं क्योंकि कथञ्चित् अभिन्न रूप से स्वसंवेद्य प्रतीत होता हैं और वे क्रोधादि रूप है। द्रव्य-कर्म के सम्बन्ध में आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है-'यथा भाजन विशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिरा भावेन परिणामः तथा पुद्गलानामपि आत्मनि स्थितानां योगकषायवशात् कर्म भावेन परिणामो वेदितव्यः'।" जिस प्रकार पात्र विशेष में रखे गये अनेक रस वाले बीज, पुष्प तथा फलों
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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