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अनेकान्त-56/1-2
विशिष्ट भाषाविद् असाधारण प्रतिभाशील आचार्यवर्य श्री अमृतचन्द्रसूरि ने दण्डान्वय प्रक्रिया का आश्रय लेकर आत्मख्याति नामक टीका लिखी। इसकी भाषा समास बहुल है। दार्शनिक प्रकरणों के कारण सामान्यजनों के लिए दुरूह हो गयी है। इस टीका में 'समयसार' को नाटक का रूप दिया गया है। टीकाकार ने नाटकीय निर्देशों को पूरा पूरा स्थान दिया है। यथा पीठिका परिच्छेद को पूर्वर. का गया है। कृति को नाटक के समान 9 अंकों (अधिकारों) में विभक्त किया गया है(1) जीवाजीव (2) कर्त्ताकर्म (3) पुण्य (4) आस्रव (5) संवर (6) निर्जरा (7) बंध (8) मोक्ष (9) सर्वविशुद्ध ज्ञान।
नवम अंक के अंत में समाप्ति सूचक पंक्तियाँ इस प्रकार है 'इति श्री अमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यामात्मख्यातौ सर्वविशुद्धज्ञानप्ररूपको नवमोद्धः। नवम अंक के बाद नयों का सामञ्जस्य उपस्थित करने के लिए स्याद्वादाधिकार तथा उपायोपेयभावाधिकार नामक दो स्वतंत्र परिशिष्ट जोड दिये गये हैं। यह दर्शाने का टीकाकार का प्रयास है कि जीव अजीव आस्रव आदि नाटक के अभिनेताओं की भूमिका निभाये हुए हैं। द्वितीय अंक के पश्चात् अन्य अंकों के आरम्भ और अन्त में नाटकीय शब्द, जैसे निष्क्रान्तः प्रविशति आदि का प्रयोग किया गया है। साथ में यत्र-तत्र संस्कृत नाटकों में प्राप्त होने वाले अन्य शब्दों का भी सामान्य रूपेण उपयोग है। ___ आचार्यवर्य अमृतचन्द्रसूरि ने समयसार की 415 गाथाओं पर टीका लिखी है। टीका के मध्य गाथाओं के सारभूत विषयों को 278 कलश काव्यों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। कलश काव्य अत्यन्त रोचक एवं भावपूर्ण हैं। कलश काव्यों ने ही टीका को महत्त्वपूर्ण बना दिया और स्वाध्यायीजनों की अभिरुचि जगायी है।
आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि का सम्यक् रूप से अनुगमन करते हुए विलक्षण प्रतिभावान् सिद्धान्तविद् आचार्यवर्य श्री जयसेन स्वामी ने अत्यन्त सरल और सुबोध संस्कृत में सर्वजन संवेद्य तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी। यह टीका श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य के भावों के उद्घाटन में पूर्ण सहायक है क्योंकि जयसेनाचार्य आत्मा के शुद्ध