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अनेकान्त-56/1-2
कारण बनती है। प्रार्थना मन की बीमारी का सही इलाज है।
व्यक्ति जब 50 की उम्र पार कर जाता है तो उस पर मानसिक तनाव का प्रभाव जल्दी होने लगता है। चिड़चिड़ापन उसके तनाव की ही अभिव्यक्ति है। प्रायः डायबटीज बढ़ने, भूख कम लगने, कमर-दर्द, आंखों की ज्योति मंद पड़ने और रक्तचाप प्रभावित होने आदि मानसिक तनाव के कारण है।
वस्तुतः प्रार्थना मे हम उस लोकोन्तर व्यक्तित्व से जुड़ते हैं, जिसकी भाव-रचना को हमने अपनी प्रार्थना का आधार बनाया है। भक्तामर स्तोत्र (मूल संस्कृत) का उच्चारण करते हुए. क्या हम वैसी ही ध्वनि-तरगो का निष्पादन और निर्गमन नहीं करने लगते, जो आचार्य मानतुंग ने सृजित की होगी। उस क्षणों में हम आचार्य मानतुग से तादात्म्य स्थापित कर लेते है।
प्रार्थना - केवल वाचनिक न रहे, उसे यदि भावों से जोड़कर की जावे तो असर बहुत तीव्रता से होता है। बुरे विचारों के लिए, प्रार्थना एक Reflector का काम करती है, जो हमारे भीतर आक्रमण करें इसके पहले ही प्रत्यावर्तित हो जाते है। प्रार्थना भावात्मक परिवर्तन में बड़ी सहायक होती है।
घटना 1999 की है। कैसर विशेषज्ञ डॉ. राबर्ट ग्राइमर, बर्मिघम रायल आर्थोपेडिक अस्पताल के अधिकारी थे। उनकी नजर एक ऐसे मरीज पर पड़ी जो हड्डियो के कैंसर से, जीवन-मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहा था। उसका टयूमर, ऑपरेशन के द्वारा निकाल दिया गया था, लेकिन जब दूसरा टयूमर और पैदा हो गया, तो मरीज "मैरी सेल्फ" ने मौत को ही मित्र मान लिया। वह पेशे से साइकियाट्रिस्ट थी। उसने दवा की चिन्ता छोड़कर ईश्वर की प्रार्थना और उसके प्रति अटूट आस्था से जुड़ गयी।
समय बीतता गया और कुछ अद्भुत परिणाम हासिल हुए। स्कैन रिपोर्ट में उसका टयूमर घटता हुआ नजर आया। जब इस आश्चर्यजनक घटना के संबध में डॉ. ग्राइमर ने मैरी से पूछा। उसने बड़े आत्म विश्वास से भरकर कहा-"हाँ डॉ.! मेडिकल इलाज से परे भी कुछ और है, अच्छा होने में, मैं उसी को श्रेय देती हूँ।"