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अनेकान्त/55/1
शद्धात्मा के गीत गाये जायें और शुद्धात्मा तक पहुँचने का मार्ग अपने पास हो नहीं, तब उन गीतों से क्या नतीजा? शुभभावरूप मार्ग का उत्थापन सचमुच में जैनशासन का उत्थापन है और जैन तीर्थ के लोप की ओर कदम बढ़ाना है-भले ही वह कैसी भी भूल, गलती अजानकारी या नासमझी का परिणाम क्यों न हो? ___ शुभ में अटकने से डरने की भी बात नहीं है। यदि कोई शुभ में अटका रहेगा तो शुद्धत्व के निकट तो रहेगा-अन्यथा शुभ के किनारा करने पर तो इधर-उधर अशुभ राग तथा द्वेषादिक में भटकना पड़ेगा और फलस्वरूप अनेक दुर्गतियों में जाना होगा। इसीसे श्री पूज्यपादाचार्य ने इष्टोपदेश में ठीक कहा है:
वरं व्रतैः पदं दैवं नाऽव्रतैर्बत नारकम्। छायाऽऽतपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान्॥३॥
अर्थात्-व्रतादि शुभ राग-जनित पुण्यकर्मों के अनुष्ठान द्वारा देवपद (स्वर्ग) का प्राप्त करना अच्छा है, न कि हिंसादि अव्रतरूप पापकर्मो को करके नरकपद को प्राप्त करना। दोनों में बहुत बड़ा अन्तर उन दो पथिकों के समान है जिनमें से एक छाया में स्थित होकर सुखपूर्वक अपने साथी की प्रतीक्षा कर रहा है और दूसरा वह जो तेज धूप में खड़ा हुआ अपने साथी की बाट देख रहा है और आतपजनित कष्ट उठा रहा है। साथी का अभिप्राय यहाँ उस सुद्रव्य-क्षेत्र-काल भावकी सामग्री से है जो मुक्ति की प्राप्ति में सहायक अथवा निमित्तभूत होती है।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी इसी बात को मोक्खपाहुड की 'वर वय-तवेहि सग्गो' इत्यादि गाथा नं. 25 में निर्दिष्ट किया है। फिर शुभ में अटकने से डरने की ऐसी कौन सी बात है जिसकी चिन्ता कानजी महाराज को सताती है, खासकर उस हालत में जब कि वे नियतिवाद के सिद्धान्त को मान रहे हैं और यह प्रतिपादन कर रहे हैं कि जिस द्रव्य की जो पर्याय जिस क्रम से जिस समय होने को है वह उस क्रम से उसी समय होगी उसमें किसी भी निमित्त से कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में शुभभावों को अधर्म बतलाकर उनकी मिटाने अथवा छुडाने का उपदेश देना भी व्यर्थ का प्रयास जान पड़ता है। ऐसा करके वे उलटा अशुभ-राग-द्वेषादिकी प्रवृत्तिका मार्ग साफ