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________________ अनेकान्त/55/1 हम अपनी आवश्यकताओं को नियंत्रित एवं मर्यादित कर लेते हैं। स्वैच्छिक परिसीमन के साथ ही अर्जन का विसर्जन लगा हुआ है। उपासक दशांग सूत्र में दस आदर्श श्रावकों का वर्णन है, जिसमें आनन्द, मन्दिनीपित और सालिही पिता की सम्पत्ति का विस्तृत वर्णन आता है। इससे यह स्पष्ट है कि महावीर ने कभी गरीबी का समर्थन नहीं किया। उनका प्रहार या चिंतन धन के प्रति रही हुई मूर्छावृत्ति पर है। वे व्यक्ति को निष्क्रिय या अकर्मण्य बनने को नहीं कहते पर उनका बल अर्जित सम्पत्ति को दूसरो में बांटने पर है। उनका स्पष्ट उद्घोष है"असविभगीणहु तस्य मोक्खो'' अर्थात् जो अपने प्राप्त को दूसरों में बाटता नहीं है, उसकी मुक्ति नहीं होती। अर्जन के विसर्जन का यह भाव उदार और सवेदनशील व्यक्ति के हृदय में ही जागृत हो सकता है। भगवतीसूत्र में तुगियानगरी के श्रावकों का उल्लेख मिलता है जिनके घरों के द्वार अतिथियों के लिए सदा खुले रहते थे। अतिथियों में साधुओं के अतिरिक्त जरूरतमंद लोगों का भी समावेश है। जैनदर्शन में दान और त्याग जैसी जनकल्याणकारी वृत्तियों का विशेष महत्त्व है। आवश्यकता से अधिक संचय न करना और मर्यादा से अधिक जरूरतमंद लोगों में वितरित कर देने की भावना समाज के प्रति कर्तव्य व दायितव बोध के साथ-साथ जनतांत्रिक समाजवादी शासन व्यवस्था को जन्म देना कही जा सकती है। दान का उद्देश्य समाज में ऊंच-नीच कायम करना नहीं, वरन् जीवन रक्षा के लिए आवश्यक वस्तुओं का समवितरण करना है। दान केवल अर्थ दान तक ही सीमित नही रहा बल्कि आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान तथा अभयदान इन रूपों में भी दान को जैन दृष्टिकोण से समझाया गया है। अतः अर्थ का अर्जन के साथ साथ विसर्जन करके समाज को नया रूप दिया जा सकता है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैनदर्शन में जिन आर्थिक तत्वों का गुम्फन किया गया है, उनकी आज के संदर्भ में बड़ी प्रासंगिकता है और धर्म तथा अर्थ की चेतना परस्पर विरोधी ने होकर एक-दूसरे की पूरक है।
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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