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________________ अनेकान्त/55/1 (ख) भगवान महावीर का दूसरा सूत्र है- दिक्परिमाणव्रत। विभिन्न दिशाओं में आने-जाने के सम्बन्ध में मर्यादा या निश्चय करना कि अमुक दिशा में इतनी दूरी से अधिक नहीं जाऊंगा। इस प्रकार की मर्यादा से वृतियों के संकोच के साथ-साथ मन की चंचलता समागत होती है तथा अनावश्यक लाभ अथवा संग्रह के अवसरों पर स्वैच्छिक रोक लगती है। क्षेत्र सीमा की अतिक्रमण करना अन्तर्राष्ट्रीय कानून की दृष्टि में अपराध माना जाता है। अत: इस व्रत के पालन करने से दूसरों के अधिकार क्षेत्र में उपनिवेश बसा कर लाभ कमाने की या शोषण करने की वृति से बचाव होता है। इस प्रकार के व्रतों से हम अपनी आवश्यकताओं का स्वैच्छिक परिसीमन कर समतावादी समाज रचना में सहयोग कर सकते (ग) उपभोग-परिभोग पारिमाण व्रत- श्रावकों का एक अन्य व्रत हैं दिक्परिमाणव्रत के द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर तथा वहां की वस्तुओं से निवृत्ति हो जाती है, किन्तु मर्यादित क्षेत्र के अन्दर और वहां की वस्तुओं के उपभोग (एक बार उपभोग) परिभोग (बार-बार उपभोग) में भी अनावश्यक लाभ और संग्रह की वृत्ति न हो इसके लिए इस व्रत का विधान है। जैन आगम में वर्णित इस व्रत की मर्यादा का उद्देश्य यही है कि व्यक्ति का जीवन सादगी पूर्ण हो और वह स्वयं जीवित रहने का साथ-साथ दूसरों को भी जीवित रहने को अवसर और साध न प्रदान कर सकें। व्यर्थ के संग्रह और लोभ से निवृत्ति के लिए इन व्रतों का विशेष महत्व है। (घ) दिपरिमाण एवं उपभोग- परिभोग परिमाण के साथ-साथ देशावकाशिक व्रत का भी विधान किया है। जिसके अन्तर्गत दिन-प्रतिदिन उपभोग-परिभोग एवं दिक्परिमाण व्रत का और भी अधिक परिसीमन करने का उल्लेख किया गया है। अर्थात् एक दिन-रात के लिए उस मर्यादा को कभी घटा देना, आवागमन के क्षेत्र एवं भागरूोपभोग्य पदार्थो की मर्यादा कम कर देना, इस व्रत की व्यवस्था मे है। श्रावक के लिए देशावकाशिक व्रत में 14 विषयों का चिन्तन कर प्रतिदिन के नियमों में मर्यादा का परिसीमन किया गया है। वे 14 विषय है:
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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