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क्या शुभ भाव जैन धर्म नहीं? - आचार्य पं. जुगलकिशोर मुख्तार श्री कानजी स्वामी ने अपने प्रवचन लेखमें आचार्य कुन्दकुन्द के भावप्राभृत की गाथा को उद्धृत करके यह बतलाने की चेष्टा की है कि जिनशासन में पूजादिक तथा व्रतों के अनुष्ठान को 'धर्म' नहीं कहा है, किन्तु 'पुण्य' कहा है, धर्म दूसरी चीज है और वह मोह - क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम है :
प्राकृत विद्या के अक्टूबर-दिसम्बर २००१ के अंक में 'अनेकान्त' से साभार उद्धृत करते हुए डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन का एक लेख 'भारत वर्ष का एक प्राचीन विश्वविद्यालय' प्रकाशित हुआ है, एतदर्थ प्राकृत विद्या' के सम्पादक के प्रति आभार। सम्पादक महोदय ने अपेक्षा की है कि 'अनेकान्त के प्राचीन अंको में प्रकाशित महत्त्वपूर्ण सामग्री का पुनर्प्रकाशन करें। हम उन्हें साधुवाद देते हुए उनके इस सत्परामर्श पर, इसी अंक में वीर सेवा मन्दिर के संस्थापक आचार्य पं. श्री जुगल किशोर जी मुख्तार साहब का एक लेख प्रकाशित कर रहे हैं, जो अनेकान्त वर्ष १३ किरण १, जुलाई १९५४ में प्रकाशित हुआ था, जो आज भी सामयिक है। आशा है, प्राकृत विद्या के विद्वान् सम्पादक और अध्येता - पाठकों को यह लेख रुचिकर प्रतीत होगा।
श्री मुख्तार साहब ने नवम्बर १९५३ ( वर्ष १२ किरण ६ ) में सम्पादकीय आलेख 'समयसार की १५वीं गाथा और श्री कानजी स्वामी' में श्री कानजी स्वामी के एक प्रवचन पर टिप्पणी करते हुए लिखा है- "सारा प्रवचन आध्यात्मिक एकान्त की ओर ढला है, प्रायः एकान्त मिथ्यात्व को पुष्ट करता है और जिनशासन के स्वरूप के विषय में लोगों को गुमराह करने वाला है। आगे इसी कड़ी में अनेकान्त के जनवरी १९५४ ( वर्ष १२ किरण ८ ) में उन्होंने निष्कर्ष रूप में लिखा है
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"अतः कानजी स्वामी का 'वीतरागता ही जैनधर्म है' इत्यादि कथन केवल निश्चयावलम्बी एकान्त हैं, व्यवहारनय के वक्तव्य का विरोधी है, वचनानय के दोष से दूषित है और जिनशासन के साथ उसकी संगति ठीक नही बैठती
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-सम्पादक