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________________ 32 अनेकान्त/55/1 परोक्ष प्रमाण का स्वरूप परोक्ष के भेद, हेतु का स्वरूप पक्ष का प्रतिपादन अनुमान के पच्चावयव वाक्यों, उपनय और निगमन को अनुमानाङ्ग मानने में दोषोद्भावन आदि का वर्णन है। चतुर्थ समुद्देश में सामान्य विशेषात्मक उभय-रूप विषय की सिद्धि की गयी है। पच्चम समुद्देश में प्रमाण के फल पर चर्चा की गयी है। षष्ठ समुद्देश में प्रमाणाभास का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। पं. श्री हीरालाल जी शास्त्री ने प्रस्तुत प्रमेयरत्नमाला ग्रन्थ की हिन्दी व्याकरण अज्ञान-कर्तृक टिप्पण एवम् पण्डित श्री जयचन्द्र जी की हिन्दी वचनिका के आधार पर की है। ग्रन्थ की प्रस्तावना जैन एवम् बौद्ध दर्शन के ख्यातिलब्ध विद्वान प्रो. उदयचन्द्र जी जैन ने लिखी है। जिसमें आपने अष्टसहस्री के टिप्पण एवम् प्रकृत ग्रन्थ के टिप्पण की तुलना कर टिप्पणकार का नाम लघुसमन्तभद्र सिद्ध किया है। हिन्दी व्याख्याकार पण्डित हीरालाल जी ने प्रकृत ग्रन्थ के सरल अनुवाद के साथ ग्रन्थ की नाना ग्रन्थियों को विशेषार्थ में उद्घाटित किया है। न्यायग्रन्थों में पारिभाषिक शब्दों के प्रचुरता के साथ शब्दलाघद की प्रवृत्ति देखी जाती है, जिसके कारण अर्थ खुलासा करना टेढ़ी खीर हो जाता है, परन्तु लघुसमन्तभद्र के टिप्पण एवम् पं. श्री छावड़ा जी वचनिका के आधार पर ग्रन्थ के हार्द को हस्तामलकवत् विशद किया है । ग्रन्थ में सम्पूर्ण टिप्पण फुटनोट मे संयोजित ग्रन्थ के महत्त्व को द्विगुणित किया है। ग्रन्थान्त में टीकाकार की प्रशस्ति, सूत्रपाट, ग्रन्थ के सूत्रों की प्रमाणमीमांसा, प्रमाणनयतत्वालोक, से तुलना की तालिका, पारिभाषिक शब्द सूची, ग्रन्थोद्धृत गद्यावतरण एवं पद्यावतरणसूची (सन्दर्भ), प्र.र.मा.कार रचित श्लोक, टिप्पणस्थ श्लोक सूची, ग्रन्थागत दार्शनिक, ग्रन्थ, एवम् जैनाचार्यो की सूची सहित नगर देश नाम सूची 16 परिशिष्ट देकर ग्रन्थ की उपयोगिता को बढ़ाते हुए सम्पादन पद्धति के प्रतिमानों की पालना की गयी है। निष्कर्षत: प्रस्तुत अनुवाद एवम् व्याख्या पण्डित जी के अध्यवसाय एवम्
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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