________________
30
अनेकान्त/55/1
संरक्षण से चिन्तित, यतः निमित्तज्ञान द्वारा उन्होंने जान लिया कि काल-दोष के कारण आगामी समय में अंगों के आशिक ज्ञान को धारण करने की मेधावाले भी नहीं रहेंगे अत: लिपिबद्ध करने हेतु उन्होंने महिमा नगरी से मुनि श्री पुष्पदन्त एवम् भूतबली को आहूत कर उनकी परीक्षा कर, श्रुत-परम्परा के संरक्षणार्थ लिपिबद्ध करने के अभिप्राय से आगम सिद्धान्त सिखाया, जिन्होंने अपने गुरु की भावना के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ को प्राकृत भाषा में लिपिबद्ध किया।
प्रस्तुत आगमग्रन्थ में छह खण्डों में जीवटाण, (2) खुद्दाबन्ध (3) बन्ध स्वामित्व विचय (4) वेदना (5) वर्गणा एवम् (6) महाबन्ध। इन छह खण्डों के प्रथम खण्ड में सत्संख्यादि अष्टविध अनुयोग द्वारों, 14 गुणस्थानों और मार्गणाओं का आश्रय पूर्ण विवेचन किया गया है। द्वितीय खुद्दाबन्ध में प्ररूपणाओं में कर्मबन्ध करने वाले जीवन का वर्णन किया गया है। तृतीय बन्ध स्वामित्त्वविचय में कितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है और किसके नही। किन गुणस्थानों में कितनी प्रकृतियों का बन्ध, सत्व, उदय और व्युच्छित्तियाँ होती हैं आदि का सूक्ष्म एवम् विशद विवेचन है। चतुर्थ वेदनाखण्ड में कृति और वेदना अधिकार वर्णित है। पञ्चम वर्गणाखण्ड में 23 प्रकार की बन्धनीय वर्गणाओं का तथा स्पर्श, कर्म प्रकृति आदि का वर्णन मिलता है। षष्ठ महास्कंघ में प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभाग व प्रदेशबन्ध का सविस्तर वर्णन मिलता है
षट्खण्डागम ग्रन्थ पर आ. कुन्दकुन्द एवम् समन्त-भद्राचार्यादि अनेक आचार्यों ने टीका लिखी, परन्तु वे आज उपलब्ध नहीं। सम्भवतः सबसे विशालटीका 72 हजार श्लोक प्रमाण टीका ईसा की आठवीं/नवमी शताब्दी के महान् आचार्य वीरसेन स्वामी ने संस्कृत एवम् प्राकृत में लिखी। ग्रन्थ के प्रारम्भिक पांच भाग पर लिखित टीका धवला एवम् षष्ठ महाबन्ध खण्ड की टीका महाधवला के नाम से ज्ञात है।
धवला एवम् महाधवला टीका समन्वित उक्त आगम ग्रन्थ मूडबिद्री के ग्रन्थागार में कन्नड लिपि में सुरक्षित थीं, जो मात्र शोभा एवम् दर्शन की वस्तु थीं, जिनके बाहर आने एवम् लिप्यन्तर कराने की कहानी लम्बी है, उसके पकाशन हेतु ग्रन्थ के सम्पादन, एवम् अनुवाद कार्यों में प्रो. डॉ. हीरालाल जैन,