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________________ अनेकान्त-55/4 मनोज्ञ, अमनोज्ञ, स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण रूप पंचेन्द्रिय विषयों में राग-द्वेष का परिहार (परित्याग) करना अर्थात् मनोज्ञ विषयों में राग नहीं करना और अमनोज्ञ विषयों में द्वेष नहीं करना अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनायें हैं। परिग्रह का हेतु : लोभ- पदार्थ ससीम हैं और इच्छायें व आकांक्षायें आकाश के समान असीम हैं। आकाश द्रव्य ही षद्रव्यों में एक ऐसा द्रव्य है जो लोक और अलोक दोनों में परिव्याप्त है। शेष पांच द्रव्य लोक में ही हैं। यही स्थिति तृष्णा की भी है। लोभ पापों का मूल कारण है। कहा गया है सर्वविनाशाश्रयिणः सर्वव्यसनैकराजमार्गस्य। लोभस्य को मुखगतः क्षणमपि दुःखान्तरमुपेयात्॥ __-प्रशमरति प्रकरण 1/29 लोभ सब विनाशों का मूल आधार है और सब व्यसनों का राजमार्ग है। लोभ के मुख में गया हुआ कौन मनुष्य क्षण भर के लिए भी सुख पा सकता है? क्रोधात् प्रीतिविनाशं मानाद् विनयोपघातमाप्नोति। शाठ्यात्प्रत्ययहानिः सर्वगुणविनाशनं लोभात्॥ -प्रशमरति प्रकरण 1/25 क्रोध से प्रीति का नाश होता है, मान से विनय का घात होता है, मायाचार से विश्वास जाता रहता है और लोभ से सभी गुण नष्ट हो जाते हैं। लोभी की दशा के बारे में आचार्य शिवार्य लिखते हैएवं जं जं पस्सदि दव्वं अहिलसदि पाविदं तं तं। सव्वजगणं वि जीवो लोभाइट्ठो न तिप्पेदि॥ -भगवती आराधना गा. 855 लोभाविष्ट मनुष्य संसार की जिन-जिन उत्तम वस्तुओं को देखता है। उन-उन को प्राप्त करने की उत्तरोत्तर अभिलाषा करता है। त्रैलोक्य प्राप्त करने पर भी उसकी तृप्ति नहीं होती है। जह-जह भुंजइ भोगे तह-तह भोगेसु बढढदे तण्हा। अग्गीव इंधणाई तण्हं दीवंति से भोगा॥ - भगवती आराधना 1263
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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