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________________ 48 अनेकान्त-55/4 __ -इस जगत् में जितने मनुष्य परिग्रही हैं, वे अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त वस्तु का परिग्रहण करते हैं। वे इन वस्तुओं में मूर्छा रखने के कारण ही परिग्रही हैं। पदार्थ पौद्गलिक है। वह परिग्रह नहीं है। मनुष्य के द्वारा मूर्छा पूर्वक परिगृहीत पदार्थ ही परिग्रह बनता है। तत्वार्थसूत्र में परिग्रह को परिभाषित करते हुए सूत्र लिखा 'मूर्छा परिग्रहः' अर्थात् मूर्छा परिग्रह है। मूर्छा क्या है ऐसा पूछने पर आचार्य पूज्य पाद लिखते हैं-गाय, भैंस, मणि और मोती आदि चेतन, अचेतन बाह्य उपाधि का तथा रागादिरूप अभ्यन्तर उपाधि का संरक्षण, अर्जन और संस्कार आदि रूप व्यापार ही मूर्छा है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में लिखा है या मूर्छा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ज्ञेयः। मोहोदयादुदीर्णो मूर्छा तु ममत्त्वपरिणामः॥ यह जो मूर्छा है इसको ही निश्चय करके परिग्रह जानना चाहिए और मोह के उदय से उत्पन्न हुआ ममत्त्वरूप परिणाम ही मूर्छा है। इसके समानार्थक शब्दों के सम्बन्ध में लिखा हैइच्छा मूर्छा कामः स्नेहो गावँ ममत्वमभिनन्दः। अभिलाष इत्यनेकानि रागपर्यायवचनानि॥ - प्रशमरतिप्रकरण 1/18 इच्छा, मूर्छा, काम, स्नेह, गार्ड्स, ममत्व, अभिनन्द, अभिलाष इत्यादि अनेक राग के पर्यायावाची नाम है। परिग्रह के भेद- परिग्रह के दो भेद प्रमुख रूप से हैं अन्तरंग और बहिरंग। भगवती आराधना में लिखा है मिच्छत्तवेदरागा तहेव हासादिया य छद्दोसा। चत्तारि तह कसाया घउदस अब्भंतरा गंथा। गाथा 1/58
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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