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________________ अनेकान्त-55/4 अत्यधिक भोजन करना, स्नान-तेल मर्दन आदि शरीर संस्कार, केशर-कस्तूरी गन्ध माला, गीत और वाद्य सुनना, कोमल गद्दे एवं कामोद्रेकपूर्ण एकान्त स्थल में रहना, स्त्री-संसर्ग, सुवर्ण वस्त्र आदि धनसंग्रह, पूर्वरति-स्मरण, पंचेन्द्रियों के विषयों में अनुराग तथा पौष्टिक रसों का सेवन (गा. 990-999)। जो महात्मा पुरुष महादु:खों के निवारण हेतु इन दश प्रकार के अब्रह्म का परिहार करता है वह दृढ़ ब्रह्मचारी होता है (गा. 1000)। भगवती आराधना में गाथा 1092 से 1113 तक स्त्री-पुरुष संसर्ग का निषेध किया है जो पठनीय और माननीय है। आगमानुसार आचरण करने का सुफल : मूलाचार ग्रन्थ के समाचाराधिकार का उपसंहार करते हुये आचार्य वट्टकेर घोषणा करते हैं कि उपर्युक्त विधान रूप चर्या का जो साधु और आर्यिकायें आचरण करते हैं वे जगत् से पूजा, यश और सुख को प्राप्त कर सिद्ध हो जाते हैं (गा. 196)। प्रकारान्तर से उक्त विधान की अवज्ञा-अवमानना से अपयश, दु:ख और संसार-भ्रमण होता है जो विचारणीय है। परिग्रह और स्त्री-त्याग करके साधु शीघ्र ही सिद्ध हो जाता है (गा. 108)। मुनिभेष में अब्रह्म सेवन एवं स्त्री-संसर्ग का दुष्फल : ___ अब्रह्म सेवन के फल से सम्बन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द कृत लिंगपाहुड की गाथा 7 उल्लेखनीय है जो इस प्रकार है :__ पाओपहदभावो सेवदि य अबंभु लिंगरूवेण सो पाव मोहिदमदी हिंडदि संसारकांतारे (लिंग पा. 7) अर्थ - जिस मुनि का पाप से आ मभाव घात हो गया है ऐसा पाप-मोहित बुद्धि वाला मुनि-रूप में अब्रह्म (भोग-विलास) का सेवन करता है, जिससे वह संसार रूपी कांतार-वन में भ्रमण करता है। जिन-दीक्षा लेकर जो मुनि स्त्रियों के समूह के प्रति राग-प्रीति करता है, निर्दोषों में दोष लगाता है वह ज्ञान-दर्शन रहित है। ऐसा मुनि पशु, समान
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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