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170 वर्ष पूर्व उत्तरी भारत में दिगम्बर जैन मुनियों का विहार
-अनूपचन्द न्यायतीर्थ बीसवीं सदी के प्रथम आचार्य 108 चारित्र चक्रवर्ती श्री शांति सागर जी, मुनिराज कहे जाते हैं जो उत्तरी भारत में पधारे थे-कहा जाता है कि इससे पहले कोई मुनिराज उत्तरी भारत में नहीं आये। विक्रम संवत् 1989 में 108 आचार्य शांतिसागरजी महाराज का ससंघ (सात मुनिराज, क्षुल्लक ऐलक आर्यिका माता जी ब्रह्मचारी एवं ब्रह्मचारिणी बहिनें) चातुर्मास राजस्थान की गुलाबी नगरी जयपुर में हुआ था। उस समय मेरी आयु 10 वर्ष की थी-लोगों के मुख से सुना करता था कि इससे पहिले कोई दिगम्बर मुनिराज इधर नहीं आये। प्रथम बार आने वाले शांति सागर जी महाराज ही हैं।
इधर राजस्थान के दिगम्बर जैन ग्रंथ भण्डारों की, साहित्य शोधविभाग श्री महावीर जी (राज.) के माध्यम से सूची बनाते समय मुझे तथा मेरे परम मित्र एवं सहयोगी स्व. डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल को विक्रम संवत्-1889 की एक अधूरी काव्यकृति जिसमें एक सौ निन्यानवे (199) पद हैं प्राप्त हुई। प्राप्त रचना पद सं. 90 से प्रारंभ होती है-उससे पूर्व के 89 पद उपलब्ध नहीं हैं। प्राप्त रचना डा. कासलीवाल ने एक रजिस्टर में लिखी थी जिसे मैंने अलग से रजिस्टर से लिख लिया था। डा. साहब के स्वर्गवास के पश्चात् उनके संग्रहालय में वह रजिस्टर उपलब्ध नहीं हो रहा। मेरे द्वारा की गई अधूरी रचना की नकल के आधार पर यह तथ्यात्मक लेख प्रस्तुत है। यदि किन्हीं सज्जन के पास प्रारंभ के 89 पद्य उपलब्ध हों तो सूचित करने का कष्ट करें।
उक्त रचना वैशाखसुदी तीज (अक्षय तृतीया) संवत 1889 की है जिसे सांगानेर में संगही भवनदास की प्रेरणा से कथारूप में लिखी (चौपाई में) रचना ज्ञान झांझरी को भाषा रूप करने को दी गयी फिर इसे मयाराम ने काव्य