SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त-55/4 आचार्य/उपाध्याय बनने की होड़ लगी हो तथा संघ में एक भी साधु न होने पर भी यद्वा तद्वा आचार्य/उपाध्याय पद ग्रहण किये जा रहे हों, संघ में ब्रह्मचारिणी बहनों की पैठ बढ़ रही हो एवं उनमें कुछ के हीन आचरणों से साधुओं की चारित्र गर्दा हो रही हो, साधु-साध्वियाँ स्वयं धन-संग्रह एवं निर्माण कार्यों में रुचि ले रहे हों, साधु-साध्वियाँ अपने नामों पर संघ बनवाकर समाज में पार्टीवाजी एवं वैमनस्य का निमित्त बन रहे हों तथा साधुओं के नाम पर भक्त विभक्त हो रहे हों, साधु समाज के कुछ ठेकेदारों को प्रेरित कर तरह-तरह की उपाधियाँ ग्रहण कर रहे हों, पीछी कमण्डलु एवं शास्त्र के अतिरिक्त लौकिक साधनों जैसे टी.वी., कूलर, फोन आदि रखकर एक सद्गृहस्थ की सीमा से भी नीचे गिर रहे हों, मन्त्र-तन्त्र का दुरुपयोग करना उनका नित्य कर्म बन गया हो, संघ में नौकर-चाकर, रुपया-पैसा, चौका-चूल्हा, मोटर गाड़ी आदि रखना कालानुसार समीचीन माना जाने लगा हो और दिगम्बर सन्तों की भी प्रथमानुयोग के दृष्टान्त छोड़कर विकथाओं में रुचि होने लगी हो तथा बड़े-बड़े नेताओं को अपने कार्यक्रमों में आमन्त्रित कराके मान कषाय को पुष्ट किया जा रहा हो, राजकीय अतिथि बनने में दिगम्बर साधु भी आनन्दित हो रहे हों तब अष्टपाहुड के अनुशासन की महत्ता और भी बढ़ गई है। आज समृद्धि एवं सुविधाओं के बढ़ जाने से श्रावक तो शिथिलाचारी हुआ ही है, साथ ही वह साधुओं में तीव्रगति से बढ़ रहे शिथिलाचार को दत्तचित्तता से संरक्षण प्रदान कर रहा है और उसे पुष्ट करने में सतत संलग्न है। अष्टपाहुड उपर्युक्त शिथिलाचार के विरुद्ध एक अंकुश है जो हीनवृत्त रूपी मदोन्मत्त गजराज को नियन्त्रित करने में काफी हद तक समर्थ हो सकता है। अष्टपाहुड पर खुलकर चर्चा करने से शिथिलाचार के विरुद्ध एक वातावरण का निर्माण होगा जो समाज को जागरूक बनाकर उन्हें तथा दिगम्बर सन्तों को कुन्दकुन्दाचार्य के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलने को प्रेरित कर सकेगा। वस्तुत: कुन्दकुन्दाचार्य का व्यक्तित्व जहाँ एक ओर अध्यात्म प्रतिपादन में कुसुम से भी सुकुमार है वहाँ दूसरी ओर प्रशासक आचार्य के रूप में वज्र से भी कठोर है। वे स्वयं आचार परिपालन करने तथा संघस्थ साधुओं को आचार ग्रहण कराने में सच्चे आचार्य हैं। उनके इस लोकोत्तर रूप को जानकर ही
SR No.538055
Book TitleAnekant 2002 Book 55 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy