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अनेकान्त/55/3
1:7 भी संभावित है अर्थात् एक पुण्य प्रकृति सात पाप प्रकृतियों को उदासीन करने में सक्षम है। यह संकेत उपरोक्त कर्म प्रकृति पर आधारित निष्कर्ष के विपर्यास में जाता है। फलतः पुण्य और पाप का सम्बन्ध निम्न दो रूपों में व्यक्त किया जा सकता है :
1 पुण्य = 2 पाप (कर्म सिद्धांत)
1 पुण्य = 7 पाप (घनत्व के आधार पर) इन सम्बन्धों की यथार्थता का मूल्यांकन करना कठिन है, फिर भी, हम औसतन यह मान ले कि
1 पुण्य कर्म = (7+2)/2 पाप कर्म = 5 पाप कर्म फलतः यह माना जा सकता है कि एक पुण्यमय कार्य प्रायः पांच पापमय कार्यों को उदासीन कर सकता है। निश्चित रूप से, पांच की संख्या 'एक' की संख्या की तुलना में 'बहु' तो मानी ही जा सकती है। यदि इस सम्बन्ध में अन्य कोई शास्त्रीय आधार पर धारणा उपलब्ध हो, तो ज्ञानीजन लेखक को सूचित करें।
पर प्रश्न यह है कि पुण्य की परिमाणात्मकता का केवल यह अनुपात ही आधार है या अन्य भी कुछ हो सकता है? साथ ही, विभिन्न पुण्य कार्यों की कोटि कैसे-निर्धारित की जावे? यह हिंसा की परिमाणात्मकता के समान सरल नहीं है। हमने हिंसा की मात्रा के परिकलन में विभिन्न जीवों की चैतन्य कोटि का आधार भी लिया है। सभी जीवों की आत्मा में समान-क्षमता होते हुये भी उनकी चैतन्य कोटि में अंतर होना ही चाहिये। यदि एक जीव में एक आत्मा की धारणा ही सही मानी जावे तो दो इन्द्रिय या पंचेन्द्रिय जीव के हिंसन में बराबर हिंसा माननी होगी जो सही नहीं लगता। इसलिये हिंसा का मान भी जीवों की चैतन्य कोटि पर आधारित मानना चाहिये।
यदि हम वर्तमान विज्ञान के अनुसार जीव की कोशिकीय संरचना माने, तो इन्द्रियों की वृद्धि के साथ सामान्यतः स्थूलता भी बढ़ती जाती है और उनमें