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अनेकान्त/54-2
देखने की ओर से आँखों को किंचित् हटाकर अर्थात् नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि को स्थिर करके एक विषयक परोक्ष ज्ञान में चैतन्य को रोककर शुद्ध चिद्रूप अपनी आत्मा में स्मृति का अनुसंधान करें। यह ध्यान संसार से छूटने के लिए किया जाता है। आचार्य जिनसेन ने तन्मय होकर किसी एक ही वस्तु में जो चित्त का निरोध कर लिया जाता है उसे ध्यान कहा है। वह ध्यान वज्रवृषभनाराच संहनन वालों के अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही रहता है। जो चित्त का परिणाम स्थिर होता है उसे ध्यान कहते हैं और जो चंचल रहता है उसे अनुप्रेक्षा, चिन्ता, भावना अथवा चित्त कहते हैं।' योग, ध्यान, समाधि, धीरोध अर्थात् बुद्धि की चंचलता रोकना, स्वान्त निग्रह अर्थात् मन को वश में करना और अन्त:संलीनता अर्थात् आत्मा के स्वरूप में लीन होना आदि सब ध्यान के ही पर्यायवाचक शब्द है। ध्यान के भेद-ध्यान के दो प्रकार हैं-1. शुभ ध्यान 2. अशुभ ध्यान। भोगी की शक्ति का उपयोग अशुभ ध्यान में होता है। योगी की शक्ति का उपयोग शुभ ध्यान में होता है। अतः ध्यान को प्राथमिक भूमिका से उठाकर अन्तिम शिखा तक ले जाने के चार आयाम हैं
चत्तारि झाणा पण्णता तं जहा अट्टे झाणे रोहे झाणे धम्मे झाणे सुक्के झाणे।' तत्वार्थ सूत्र में भी लिखा है 'आर्तरौद्रधर्म्य शुक्लानि'' अर्थात् ध्यान के चार प्रकार कहे हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान। 1. आर्त्तध्यान-आर्त शब्द 'ऋत' अथवा 'अर्ति' इनमें से किसी एक से बना है। इनमें से ऋत का अर्थ दुःख है और अर्तिकी, अर्दनं अर्ति, ऐसी निरुक्ति होकर उसका अर्थ पीड़ा पहुंचाना है। इसमें जो होता है वह आर्तध्यान है। इसके चार भेद हैं। 1. अनिष्ट संयोग 2. इष्ट वियोग 3. परीषह (वेदना) 4. निदान। कषाय सहित होने से यह अप्रशस्त माना जाता है। 2. रौद्रध्यान-यह भी कषाय सहित होता है अत: यह भी अप्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत है। इसमें क्रूरता का प्राधान्य होता है। हिंसक एवं क्रूर भावों ssocessssssccccccccc