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________________ 20 अनेकान्त / 54-2 scccccca आदिपुराण में धर्म्यध्यान के आज्ञाविचय, अपायविचय, संस्थानविचय और विपाकविपय चार भेद स्वीकार किये गये हैं । 45 200 आज्ञाविचय- अत्यन्त सूक्ष्म अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थो को विषय करने वाला जो आगम है, उसे ही आज्ञा कहते हैं क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान के विषय से रहित केवल श्रद्धान करने योग्य पदार्थ में एक आगम की ही गति होती है।" वह चार अनुयोगों में विभक्त है । द्रव्यश्रुत और भावश्रुत आगम सर्वत्र प्रणीत है अत: उसमें वर्णित सप्त तत्व पदार्थ षड्द्रव्य पंचास्तिकाय का चिन्तन करते हुए स्थिर होना आज्ञाविचय धर्म्यध्यान है। अपायविचय- तीन (मानसिक, वाचिक, कायिक अथवा जन्म जरा, मृत्यु) प्रकार के संताप से भरे हुए संसार रूपी समुद्र में जो प्राणी पड़े हुए हैं उनके अपाय का चिन्तन करना दुःखों से निकालने का विचार करना अपाय विचय धर्म्यध्यान है । 17 विपाकविचय- शुभ और अशुभ भेदों में विभक्त हुए कर्मों के उदय से संसाररूपी आवर्त्त की विचित्रता का चिन्तवन करने वाले मुनि के जो ध्यान होता है उसे आगम के ज्ञाता तृतीय धर्म्यध्यान कहते हैं। संस्थानविचय-लोक के आकार का बार बार चिन्तवन करना तथा लोक के अन्तर्गत रहने वाले जीव अजीव अदि तत्त्वों का विचार करना चतुर्थ धर्म्यध्यान कहलाता है। आदिपुराण तथा अन्य ध्यान विषयक शास्त्रों में धर्म्यध्यान के उक्त चार भेदों का ही कथन है किन्तु चारित्रसार में विशेष कथन करते हुए अपायविचय, उपायविचय, जीवविचय, अजीवविचय, विपाकविचय, विरागविचय, भवविचय, संस्थानविचय, आज्ञाविचय, हेतुविचय इन दश भेदों का कथन किया गया है। ध्यान विषयक ग्रन्थों में संस्थान विचय के पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत भेद निरूपित किये गये हैं।" आचार्य अमितगति ने पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत क्रम 2 0000
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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