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अनकान्त / 54-1 2020202
नासूर बनता सोनगढ़ मिशन
डॉ. जयकुमार जैन
जैन सन्देश का साहू श्री अशोक जैन विशेषांक मेरे सामने है और उसमें डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल, जयपुर के 'सम्मेदशिखर के लिए समर्पित साहू अशोक कुमार 'जैन' लेख में उल्लिखित वाक्य ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया है। वाक्य इस प्रकार है
" एक सामाजिक कार्यकर्ता, जैन दर्शन का अध्येता और सोनगढ़ मिशन का प्रतिनिधि होने के कारण मेरा साहू परिवार से विगत 33 वर्षो से निकट का सम्बन्ध रहा है। "
उपर्युक्त वाक्य में डॉ. भारिल्ल जी को यथार्थ तथ्यपरक स्वीकारोक्ति के लिए धन्यवाद। उन्होंने मात्र इस वाक्य के द्वारा जाने-अनजाने यह स्वीकार किया है कि सोनगढ़ मिशन की सत्ता है और वे उस मिशन के प्रतिनिधि हैं, परन्तु उनके सौम्य, आकर्षक व्यक्तित्व एवं अध्यात्मपरक चिन्तन का उनके क्रिया-कलापों से मेल नहीं खाता। क्योंकि सोनगढ़ मिशन द्वारा व्याख्यायित तथा प्रचारित अध्यात्म और ओशो के अध्यात्मपरक भोगवादी चिन्तन में विशेष अन्तर नहीं दिखता है। ओशो भी भोग से समाधि की प्रक्रिया को महत्त्व देते हैं और सोनगढ़ मिशन के संस्थापक स्वयम्भू घोषित भावी तीर्थकर सूर्यकीर्ति भी तप - दान - पूजा - तीर्थयात्रा आदि को मिथ्यात्त्व रूप में प्रचारित करते रहे हैं, प्रकारान्तर से भोगोपभोग को उन्होंने धर्ममार्ग में बाधक नहीं कहा।
दिगम्बर जैन धर्म मूलत: निवृत्तिपरक धर्म के रूप में स्वीकृत है और श्रुतपरम्परा से तप-दान-पूजा आदि को श्रावकोचित कर्तव्य मानते हुए परम्परया मोक्ष - फल देने वाला तक माना गया है यही कारण था कि अनेकान्त दृष्टि से विचार करने वाले और दिगम्बर जैन धर्म पर दृढ़ आस्था रखने वाले मनीषी विद्वानों द्वारा तथाकथित सोनगढ़ से बहुप्रचारित
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