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अनेकान्त/54-1 cececececececececececececececececoce
पर इस आलंकारिकता की उद्भावनायें भी कवि की अनूठी हैं इसीलिए वे बगीचे में होती कोकिलाओं की मधुर ध्वनि में ऐसी उद्भावना करते हैं मानों वह ककध्वनि फलों का सेवन कराने के लिए पथिकों का आह्वान कर रही हो। कैसे अनूठे भाव को शब्द दिया है रचनाकार ने!
यत्रारामाः सदा रम्यास्तरुभिः फलशालिभिः। पथिकानाह्वयन्तीव परपुष्टकलस्वनैः।।4/59।।
अन्तिम कुलकर नाभिराय के समय में आकाश में घनी घटाओं का दिखना, उससे जल वृष्टि होना तथा नदी, निर्झर आदि के प्रवाहित होने का वर्णन करती भाषा बड़ी सीधी है पर है अलंकारमयी इसीलिए उपमायें भी हैं, उत्प्रेक्षायें भी और श्लेष भी। कवि एक उपमा से न तो स्वयं तृप्त होता है और न अपने पाठक का तृप्त पाता है, इसीलिए इसकी श्रृंखला रचता है। यथा
चातका मधुरं रेणुरभिनन्दा घनागमम्। अकस्मात्ताण्डवारम्भमातेने शिखिनां कुलम्।।3/170॥ अभिषेक्तुमिवारब्धा गिरीनम्भेमुचां चयाः। मुक्तधारं प्रवर्षन्तः प्रक्षरद्धातुनिर्झरान्।।3/171॥ क्वचिद् गिरिसरित्पूराः प्रावर्तन्य महारयाः। धातुरागारुणा मुक्तारक्तमोक्षा इवाद्रिषु।।3/172।। ध्वनन्तो ववृषुर्मुक्तस्थूलधारं पयोधराः। रुदन्त इव शोकार्ताः कल्पवृक्षपरिक्षये।।3/173।। मार्दङ्गिककरास्फालादिव वातनिघट्टनात्। पुष्करेष्विव गम्भीरं ध्वनत्सु जलवाहिषु।।3/174॥ विद्युन्नटी नभेरङ्गे विचित्राकारधारिणी। प्रतिक्षणविवृत्ताङ्गी नृत्तारम्भमिवातनोत्।।3/175।। पयः पयोधरासक्तैः पिबद्धिरवितृप्तिभिः। कृच्छलब्धमतिप्रीतैश्चातकैरर्भकायितम्।।3/176॥
काव्यभाषा का चरम लक्ष्य होता है संवेदनशील ग्रहीता के हृदय में रसोद्रेक करना। सामान्यजन अपने लोकजन्य कष्टों के निवारणार्थ प्रभु के पास जाता है, प्रभु की दिव्य वाणी खिरने वाली है, वह जैसे ही भक्ति विह्वल होकर प्रभु के चरणों में प्रणाम करता है तो प्रणाम करते ही उसे SECassesLORDEReacoccaCORORSCOcs