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________________ अनेकान्त/54/3-4 123 श्रमण परम्परा में प्रतिपादित षट्कर्म व्यवस्था -डॉ.सुरेशचन्द जैन श्रमण परम्परा एक जीवन्त परम्परा है। पुराणकाव्यों में आधुनिक कर्म व्यवस्था सम्बन्धी परम्परा के मूल स्रोत पुराणों में यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं। यद्यपि आचार्य जिनसेन (वि0 सं0 840 शक संवत् 705) का हरिवंश पुराण बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के चरित्र-चित्रण से सम्बद्ध माना जाता है, फिर भी, उन्होनें श्रमण परम्परा के अक्षुण्ण स्वरूप का दिग्दर्शन कराया है। अन्तिम कुलकर नाभिराय एंव तीर्थकर ऋषभदेव से लेकर तीर्थकर नमिनाथ की जीवन्त परम्परा का उल्लेख भी हरीवंश पुराण में हुआ है। 9वें सर्ग में तीर्थकर ऋषभदेव के उस समय का वर्णन किया है जब भोगभूमिज कल्प-वृक्षों के अभाव से संत्रस्त प्रजा युवा ऋषभदेव के सम्मुख पहुँचती है। अथान्यदा प्रजाः प्राप्ता नाभेय नाभिनोदिताः। स्तुतिपूर्व प्रणम्योचुरेकी भूय महातयः॥ प्रभो कल्पद्रुमाः पूर्व प्रजानां वृत्ति हेतवः। तेषां परिक्षयेऽभूवन् स्वयंच्युत रसेक्षवः।। 25.26 हरिवंशपुराण तत्कालीन स्थिति का दिग्दर्शन कराते हुए आ0 जिनसेन वर्णन किया है कि पहले कल्पवृक्ष प्रजा के साधन थे, तदनन्तर स्वतः रसम्रतावी इक्षुवृक्ष साधन बने, जिसके कारण कल्प वृक्षों के उपकार विस्मृत से होने लगे, परन्तु यत्र-तत्र बिखरे रसहीन इक्षुवृक्ष, फल से झुके वृक्षों का सद्भाव है, गाय-भैसों के स्तनस्राव युक्त हैं। सिंहादि हिंसा के पशुओं से हम भयभीत हैं। ऐसी स्थिति में क्या भक्ष्य है, क्या अभक्ष्य, इसका मार्ग पूछने पर युवा ऋषभदेव ने धर्म-अर्थ-काम रूप साधनों का उपदेश दिया तथा सुख की सिद्धि के लिए अनेक उपायों के साथ-साथ असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प रूप षड् कर्मों का भी उपदेश दिया। -हरिवंशपुराण 9.25.35. इसी प्रकार का उल्लेख आदिपुराणकार आचार्य जिनसेन द्वारा भी
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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