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अनेकान्त/54/3-4
रागद्वेषासंयममददुःख भयादिकं न यत्कुरुते। द्रव्यं तदेव देयं सुतपः स्वाघ्यायवृद्धिकरम्।। पात्रं त्रिभेदयुक्त संयोगो मोक्षकारणगुणानाम्। अविरत सम्यग्दृष्टि विरताविरतश्च सकलविरतश्च॥ हिंसायाः पर्यायो लोभोऽत्र निरस्यते यतो दाने। तस्मादतिथि वितरणं हिंसा व्युपरणमेवेष्टम्॥ गृहमागताय गुणिने मधुकरवृत्त्या परानपीडयते। वितरति यो नातिथये सकथं न हि लोभवान् भवति॥ कृतमार्थाय मुनयं ददति भक्तमिति भावितस्त्यागः। अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभो भवत्यहिंसैव।।
अर्थात् दाता के गुणों से युक्त श्रावक को स्वपर अनुग्रह के हेतु विधि -पूर्वक यथाजात रूप धारी अतिथि साधु के लिए द्रव्य विशेष का संविभाग अवश्य करना चाहिए। अतिथि का संग्रह (प्रतिग्रह, पड़गाहन) करना, उच्चासन देना, पाद प्रक्षालन करना, पूजन करना, प्रणाम करना तथा वचनशुद्धि, कायशुद्धि, मन:शुद्धि और भोजन शुद्धि, इस नवधाभक्ति को आचार्यों ने दान देने की विधि कहा है। इस लोक सम्बधी किसी भी प्रकार के फल की अपेक्षा न रखना, क्षमा धारण करना, निष्कपट भाव रखना, ईर्ष्या न करना, विषाद न करना, प्रमोदभाव रखना और अहंकार न करना ये दाता के सात गुण कहे गये हैं। जो वस्तु राग द्वेष, असंयम, मद, दु:ख और भय आदि को न करे और तप एवं स्वाध्याय की वृद्धि करे, वह द्रव्य अतिथि को देने योग्य है। जिसमें मोक्ष के कारण भूत सम्यग्दर्शनादि गुणों का संयोग हो वह पात्र कहलाता है। उसके तीन भेद कहे गये हैं- उसमें अविरतसमयग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं। देशविरत मध्यम पात्र हैं और सकलविरत साधु उत्तम पात्र हैं। यतः पात्र को दान देने पर हिंसा का पर्यायभूत लोभ दूर होता है। अतः अतिथि को दान देना हिंसा का परित्याग ही कहा गया है। जो गृहस्थ अपने घर पर आये हुए गुणशाली मधुकरी वृत्ति से दूसरों को पीड़ा नहीं पहुँचाने वाले ऐसे अतिथि के लिए दान नहीं देता