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अनेकान्त/54/3-4
शिक्षाव्रतों में अतिथिसंविभाग व्रत का महत्त्व
-डॉ.सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' बचपन में पढ़ा था कि “साई इतना दीजिये, जामें कुटुम समय मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।" जब जैनधर्म के अध्ययन के प्रति उन्मुख हुआ तो शिक्षाव्रतों के अन्तर्गत अतिथिसंविभागवत को जाना और उपर्युक्त पंक्तियों को हृदयंगम किया कि बस मुझे इतना चाहिए कि जिसमें मेरा कुटुम्ब भली प्रकार जीवन यापन कर सके। मैं भी भूखा न रहूँ और मेरे द्वार पर आने वाला साधु भी भूखा न जाय। वास्तव में अतिथिसविभाग इसलिए व्रत है क्योंकि इसमें सामाजिक महअस्तित्व की भावना है जो समाज के चरित्रवान्, श्रद्धावान् एतं साधर्मोजनों के संरक्षण को नियमबद्ध करती है। यह नीति युगसापेक्ष नही अपितु कालातीत धर्म सापेक्ष भी है। जिनमें साधु बनने की भावना है, जिन्हें साधु प्रिय हैं उन्हें साधु की निकटता का लाभ हितकर ही होता है अतः शिक्षाव्रतों को आचरणीय बताया गया।
शिक्षाव्रत
जिन व्रतों के पालन करने से मुनिव्रत धारण करने की या मुनिव्रत धारण की शिक्षा मिलती है उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं। सागार धर्मामृत की टीका मे लिखा है कि "शिक्षायै अभ्यासाय व्रतम्"। ये चार माने गये हैं- सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोप-भोगपरिमाण तथा अतिथिसंविभागवत। शिक्षाव्रतों को सप्तशील के अन्तर्गत समाहित किया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार
परिधय इवनगराणि व्रतानि किल पालयति शीलानि।
व्रत पालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि। अर्थात् जिस प्रकार नगरों की रक्षा परकोंट से करते हैं उसी प्रकार निश्चय से व्रतों की रक्षा शील करते हैं। इसलिये अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य रूप पाँच व्रतों की रक्षा एवं पालन करने के लिये शीलों का भी पालन