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________________ अनेकान्त/54/3-4 93 किया है, वह उनका अपना मौलिक चिन्तन है, तथापि जैनागम के साथ उसकी किसी प्रकार की विसंगति नहीं है। धर्मादि के लिए मैं संकल्पपूर्वक स प्राणियों का घात नहीं करूंगा, इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके मैत्री, प्रमोद आदि भावनाओं से वृद्धि को प्राप्त हो सम्पूर्ण हिंसा का त्याग करना पक्ष कहलाता है। अनन्तर कृषि आदि से उत्पन्न हुए दोषों को विधिपूर्वक दूर कर अपने पोष्य धर्म तथा धन को अपने पुत्र पर रखकर घर को छोड़ने वाले के चर्या होती है और चर्यादि में लगे हुए दोषों को प्रायश्चित्त के द्वारा दूर करके मरण समय में आहार, मन, वचन, काय सम्बन्धी व्यापार और शरीर से ममत्व के त्याग से उत्पन्न होने वाले निर्मल ध्यान से आत्मा के राग- - द्वेष को दूर करना साधन होता है । श्रावक के तीन भेद पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक के भेद से श्रावकों का तीन भागों में विभाजन आशाधरजी की मौलिक विशेषता है। श्रावक धर्म को ग्रहण करने वाला पाक्षिक है तथा उसी श्रावक धर्म में जिसकी निष्ठा है, वह नैष्ठिक श्रावक कहलाता है और आत्मध्यान में लीन होकर समाधिमरण करने वाला साधक कहलाता है । अष्टमूल गुण रत्नकरण्ड श्रावकाचार में पञ्च अणुव्रतों को धारण करने के साथ-साथ मद्य, मांस, मधु के त्याग को अष्टमूल गुण कहा है। आशाधरजी का कहना है कि जिनेन्द्र भगवान का श्रद्धालु श्रावक हिंसा को छोड़ने के लिए मद्य, मांस और मधु को तथा पांच उदम्बर फलों को छोड़ें। कोई आचार्य स्थूल हिंसादि का त्याग रूप पांच अणुव्रत और मद्य, मांस, मधु के त्याग को अष्टमूल गुण कहते हैं अथवा इन्हीं मूल गुणों में मधु के स्थान में जुआ खेलने का त्याग करना मूलगुण कहा है" । मद्य, मांस, मधु का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग और पञ्चेदुम्बर फलों का त्याग ये पांच और त्रैकालिक देववन्दना, जीवदया और पानी छानकर पीना ये कहीं-कहीं अष्ट मूलगुण माने गये हैं ।
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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