SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 74 अनेकान्त /54/3-4 से रहित दुर्भाग्यग्रस्त दिखायी पड़ते हैं, जो अंगहीन हैं अथवा जिनके दास भी कठोर और कटुभाषी हैं, उनकी ये सब पीड़ाएं रात्रिभुक्ति परिहार के अभाव के कारण ही होती हैं। इतना ही नहीं, उन्हें विविध व्याधियों की पीड़ा, बन्धु जन-वियोग, दरिद्रता आदि अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं। ” आचार्य अमितगति की भी प्रायः यही मान्यता है। उनका कथन है कि शारीरिक व्यसनों की पीड़ा, सर्पादि से भय, निर्धनता, नीचकुल में जन्म अथवा नीच व्यक्तियों की संगति, संकुचित मनोवृत्ति का होना, चरित्र में शील, शौच आदि का अभाव, विविध रोग, दुर्जनों से प्राप्त पीड़ा आदि बहुविध पीड़ाएं रात्रिभोजन परिहार व्रत का पालन न करने के कारण होती हैं। 4 उनका यह भी कहना है कि रोग-शोक से युक्त, कलहकारिणी, राक्षसी के समान भय उत्पन्न करने वाली पत्नी अथवा दुःखी, दुश्चरित्र और रोगी कन्या का होना आदि कष्ट भी इस व्रत का पालन न करने के कारण ही प्राप्त होते हैं। 35 जैन आचार्यों की यह भी मान्यता है कि जो व्यक्ति रात्रिभोजन परिहार व्रत का पालन नहीं करता, उसे कौआ, उल्लू, गिद्ध, सांप, बिच्छू, बिल्ली, सुअर आदि नीच योनियों में जन्म लेना पड़ता है। यदि कदाचित् कुछ पूर्व पुण्य से मनुष्ययोनि भी मिली तो नीचकुलों में जन्म, पुत्रहीनता, निर्धनता आदि दुःखों को भोगना पड़ता है। 36 श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रन्थों में रात्रिभोजन परिहार व्रत की अत्यधिक प्रशंसा की गयी है। उनके अनुसार जो व्यक्ति दिनारम्भ और दिनावसान दोनो की दो-दो घड़ी और रात्रि में भोजन का परिहार करता है, वह मोहपाश को भंग करता हुआ भवसागर को अनायास पार कर लेता है । वह जब तक संसार में रहता है, उसे सर्वाधिक सुख प्राप्त होते हैं। कमलनयनी, प्रियवादिनी, मनोरमा, लक्ष्मी सदृश प्रियतमा उसे जीवन भर सुख देती है। उसकी सर्वाग सुन्दरी कन्यायें कुलमर्यादा को निर्वाह करती हुई उसे पुण्य जन्म की पंक्ति में प्रतिष्ठित करती हैं।” महामुनि पूज्यपाद के अनुसार रात्रिभोजन परिहार व्रत के पालन के फलस्वरूप ही सर्वविध सौंदर्य और स्वास्थ्य से युक्त, दिव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर सांसारिक सुख भोग का अवसर मनुष्यों को मिलता है। वे यह भी मानते हैं कि इस लोक में जो समादरणीय नृपति जन हैं, उन्हें भी यह सौभाग्य रात्रिभोजन परिहार के कारण ही प्राप्त हुआ है । " जीवन में धनसम्पत्ति, पदप्रतिष्ठा, मोहमार्ग की अनुगामिता और मुनिभाव की
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy